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________________ प्रमेयरत्नमालायां २. आरण्यक-आरण्यकों में जहाँ वानप्रस्थियों के यज्ञों का विधान है। वहाँ उपनिषदों के समान ज्ञानकाण्ड का विषय भी प्रतिपादित है । ये ब्राह्मणों और उपनिषदों के मिश्रित रूप है। वास्तव में ये ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अंग हैं । अरण्य में पढ़े जाने के कारण इनको आरण्यक कहते थे। प्रमेयरत्नमाला में बृहदारण्यक का एक पद्य उद्धृत हुआ है, जो इस प्रकार हैं सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ।। आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ।। (बृहदारण्यक ४।३।१४) बृहदारण्यक के आरम्भ में यज्ञविषय अतिस्वल्प है । वास्तव में इसमें आत्मज्ञान और ब्रह्मविद्या का ही मुख्य वर्णन होने से इसे बृहदारण्यकोपनिषद् कहते हैं । शंकराचार्य ने इस पर भाष्य लिखा है। उपनिषद् --उप और नि उपसर्ग पूर्वक सद् धातु से क्विप् प्रत्यय लगकर उपनिषद् शब्द बनता है, जिसका अर्थ है ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के समीप बैठना । जो जन श्रद्धा और भक्तिपूर्वक आत्मज्ञान के लिए ब्रह्मविद्या को ग्रहण करते हैं। वह उनके गर्भ, जन्म, जरा, रोगादि वर्ग का नाश करती हुई ब्रह्म को प्राप्त कराती है। वह उनके अविद्या संस्कार कारण का विनाश कर देती है । प्रमेयरत्नमाला में श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक उचरण है, जो इस प्रकार है विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतः पात् । सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्त्रद्यवि भूमी जनयन् देव एकः ।। श्वेताश्वतरोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की श्वेताश्वतर शाखा से सम्बन्धित था। इस उपनिषद् में छः अध्याय हैं तथा इसका सम्पूर्ण भाग गद्य में है। इसमें सांख्य और योग का स्पष्ट वर्णन है तथा कपिल ऋषि का उल्लेख इसी वैदिक ग्रन्थ में सर्वप्रथम मिलता है। इसमें सांख्य, योग और वेदान्त की पदावली प्राप्त होती है। स्मतियाँ-प्रमेयरत्नमाला के तृतीय समुद्देश में मनु और याज्ञवल्क्य आदि की स्मृतियों को श्रुत्यर्थानुसारी कहा गया है। इस प्रकार की मान्यता बहुत पहले से ही प्रचलित थी। कालिदास ने भी इसे उपमा प्रयोग के रूप में अपनाया है-श्रु तेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत् । स्मृतियों में मनुस्मृति का अत्यधिक महत्त्व है। इसका कारण यह है कि यह वेदों के अत्यन्त समीप है। कहा भी गया हैवेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं तु मनोः स्मृतम् ।" मनुस्मृति की वेदार्थोपनिबद्धता १. प्रमेयरत्नमाला-द्वितीय समुद्देश-उद्धरण १३ । २. प्रमेयरत्नमाला-द्वितीय समुद्देश-उद्धरण ८ ॥ ३. डॉ. कुवरलाल जैन : वैदिक साहित्य का इतिहास पृ० १६५ ४. रघुवंश २।२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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