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________________ प्रस्तावना २७ और नयोपदेश आदि ग्रन्थ लिखे । नयोपदेश पर इन्होंने नयामृततरंगिणी नामक स्वोपज्ञ टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त अष्टसहस्री पर अपना विवरण लिखा । हरिभद्र कृत शास्त्रवार्तासमुच्चय पर स्याद्वाद कल्पलता नामक टीका भी लिखी । भाषा रहस्य, प्रमाण रहस्य, वाद रहस्य आदि अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त जैन न्यायखण्ड खाद्य और न्यायालोक लिखकर नवीन शैली में ही नैयायिकादि दार्शनिकों की मान्यताओं का खण्डन भी किया। दर्शन के अतिरिक्त इन्होंने योग, आचारशास्त्र आदि सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे। गुजराती में भी इनके द्वारा साहित्य लिखा गया। आभार प्रदर्शन . प्रमेयरत्नमाला जैनदर्शन के पाठ्यक्रम में अनेक स्थान पर निर्धारित है । कई वर्षों से यह बाजार में अनुपलब्ध थी, अतः छात्र कठिनाई का अनुभव कर रहे थे। उनकी कमी का अनुभव कर पूज्य १०८ उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज ने इसकी हिन्दी टीका लिखने का आदेश दिया। उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया । न्याय का ग्रन्थ होने और ग्रन्थकार द्वारा संक्षेप में बात कह देने की प्रवृत्ति के कारण कुछ कठिनाई अवश्य हुई, किन्तु अज्ञातकतृक अथवा कुछ लोगों के अनुसार लघुसमन्तभद्र कृत टिप्पण के कारण सारी समस्या सुलझ गई। यह टिप्पण न होता तो किसी के लिए भी अनुवाद करना कठिन था। स्व० पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा किए हुए अनुवाद से अनेक जगह ग्रन्थ को समझने में मदद मिली । जहाँ-जहाँ मैंने विशेषार्थ दिये हैं, वे प्रायः टिप्पण के आधार से ही लिखे गए हैं। कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थों का भी सहारा लिया है, जिसका निर्देश पादटिप्पणी में कर दिया गया है। प्रस्तावना लेखन में भी अनेक लेखकों के ग्रंथों का उपयोग हआ है। न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार जी, श्रद्धेय गुरुवर पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० दलसुख जी मालवणिया डॉ० लालबहादुर जी शास्त्री डॉ. नेमिचन्द्र जो शास्त्री, डॉ दरबारी लाल जी कोठिया न्यायाचार्य, प्रो० उदयचन्द्र जी सर्वदर्शनाचार्य, डॉ० मोहनलाल जी मेहता प्रभृति आधुनिक विद्वानों की कृतियों के सहारे प्रस्तावना लिखी जा सकी है। उपयुक्त सब मनीषियों का मैं हृदय से आभारी हूँ । उन प्राचीन आचार्यों के प्रति मैं हार्दिक श्रद्धा से नतमस्तक हूँ, जिन्होंने दर्शनान्तरों की समीक्षा कर अनेकान्तवाद की दुन्दुभि बजायी और जैनधर्म तथा दर्शन का उद्योत किया। १४-१२-१९९१ ई० रमेशचन्द्र जैन. १. डॉ० मोहनलाल मेहता : जैनदर्शन पृ० ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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