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प्रमेयरत्नमालायां और सम्यक्त्व रूपी रत्नों के आभूषण से सुशोभित अङ्ग वाला संसार में हीरप नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुआ ।
निर्मल और विशाल कीर्ति वाले उस हीरप के आग्रह वश इस अनन्तवीर्य ने माणिक्यनन्दि कृत अगाध बोध वाले इस शास्त्र को कुछ संक्षिप्त किन्तु उदार वचनों के द्वारा बालकों को प्रबोधित करने वाले इस विवरण के रूप में स्पष्ट किया है।
प्रमेयरत्नमाला की रचना प्रभाचन्द्र के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' के पश्चात हुई; क्योंकि प्रमेयरलमाला के प्रारम्भ में कहा है
प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिका प्रसरे सति ।
मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ।। ३ ।। अर्थात् प्रभाचन्द्र नामक आचार्य के वचन रूप उदार चाँदनी का विस्तार होते हुए जुगनू के समान हम जैसे मन्दबुद्धि वाले पुरुषों की क्या गणना?
उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र लघु अनन्तवीर्य से पूर्व हुए । इनका समय ९५० से १०२० ई० के मध्य माना जाता है। हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा पर प्रमेयरत्नमाला का बहुत प्रभाव है। इस प्रकार अनन्तवीर्य का समय प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र के मध्य होना चाहिए। इस आधार पर इन अनन्तवीर्य का समय १२वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रतिफलित होता है।
प्रमेयरत्नमाला का वर्ण्य विषय-चूंकि परीक्षामुख का प्रधान विषय प्रमाण और प्रमाणाभास का विवेचन है, अतः उसकी टीका प्रमेय रत्नमाला का प्रधान विषय भी प्रमाण और प्रमाणाभास हो है। इनका उद्देश्य परीक्षामुख नामक सूत्रात्मक ग्रन्थ का स्पष्ट कथन करना था। प्रथम समुद्देश के अन्त में लघु अनन्तवीर्य ने कहा है-- देवस्स सम्मतमपास्तसमस्त दोषं
वीक्ष्य प्रपञ्चरुचिरं रचितं समस्य । माणिक्यनन्दिविभुना शिशुबोधहेतो
निस्वरूपममुना स्फुटमभ्यधायि ॥६॥ अकलंकदेव के द्वारा सम्मत, समस्त दोषों से रहित, विस्तृत और सुन्दर प्रमाण के स्वरूप को माणिक्यनन्दि स्वामी ने देख करके शिशुओं की जानकारी के लिए (परीक्षामुख में) संक्षेप रूप से रचा, उसी को इस (अनन्तवीर्य) ने स्पष्ट रूप से कहा है। १. प्रमेयरत्नमाला-टीकाकारस्य प्रशस्ति-१-४ । २. भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० ५३ ।
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