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________________ प्रस्तावना १९ सकते हैं । सिद्धि विनिश्चय टीका के कर्ता अनन्तवीर्य ई० सन् ९७५ के बाद और ई० सन् १०२५ के पहले किसी समय में हुए हैं। पार्श्वनाथचरित में वादिराज ने अनन्तवीर्य की स्तुति करते हुए लिखा है कि उस अनन्त सामर्थ्यशाली मेघ के समान अनन्तवीर्य की स्तुति करता हूँ, जिनकी वचनरूपी अमृतवृष्टि से जगत् को चाट जाने वाला शन्यवादरूपी हुताशन शान्त हो गया था । इन्होंने 'न्यायविनिश्चय विवरण' में अनन्तवीर्य को उस दीपशिखा के समान लिखा है, जिससे अकलङ्कवाङ्मय का गूढ़ और अगाध अर्थ पद-पद पर प्रकाशित होता है । रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य की दो रचनाएँ हैं-सिद्धिविनिश्चय टीका और प्रमाणसंग्रह या प्रमाण संग्रहालंकार । सम्प्रति दूसरी अनुपलब्ध है।' लघु अनन्तवीर्य ___ अनन्तवीर्य नाम के चूंकि अनेक आचार्य हुए हैं, अतः प्रमेयरत्नमाला के टिप्पणकार ने प्रमेयरत्नमाला के रचनाकार को लघु-अनन्तवीर्य२ या द्वितीय अनन्तवीर्य कहा है; क्योंकि इससे पूर्व जैन न्याय साहित्य में अकलङ्कदेव के सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य हो चुके थे। लघु अनन्तवीर्य की एकमात्र कृति प्रमेयरत्नमाला प्राप्त है। ग्रन्थ के आरम्भ में इस टोका को इन्होंने परीक्षामुखपञ्जिका कहा है। प्रत्येक समुद्देश के अन्त में दिये गये पुष्पिका वाक्य में इसे परीक्षामुख लघुवृत्ति भी कहा है । इसमें परीक्षामुख के सूत्रों की संक्षिप्त किन्तु विशद व्याख्या है । ग्रन्थ के प्रथम समुदेश के पांचवें पद्य में कहा गया है वजेय प्रिय पुत्रस्य हीरस्योपरोधतः । शान्तिषेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपञ्जिका ॥ ५ ॥ अर्थात् वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषेण नामक शिष्य के लिए यह परीक्षामुखपञ्जिका प्रारम्भ की गई है । ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में कहा गया है कि बदरीपाल वंशावली रूप आकाश में सूर्य के समान ओजस्वी और गुणशालियों में अग्रणी श्रीमान् वैजेय हुए । गुण और शील की सीमास्वरूप नाणम्ब इस नाम से संसार में प्रसिद्ध उसे वैजेय को पत्नी हुई, जिसे सज्जन पुरुष रेवती, अम्बिका और प्रभावती इस नाम से पुकारते थे। वैजेय की उस स्त्री से विश्व का कल्याण करने की मनोवृत्ति वाला, दान देने के लिए मेघ के समान, अपने गोत्र के विस्ताररूप आकाश का अंशुमाली (सूर्य) १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, १० ४० ( त० भाग)। २. तद्विवरीतुमिच्छवः श्रीमल्लध्वनन्तवीर्य देवा ।।-प्रमेयरत्नमाला टिप्पण,१०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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