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षष्ठः समुद्देशः
२२३. काल-कारकलिङ्गानां भेदाच्छब्दस्य कथञ्चिदर्थभेदकथनं शब्दनयः । अर्थभेदं विना शब्दानामेव नानात्वैकान्तस्तदाभासः। पर्यायभेदात्पदार्थनानात्वनिरूपकः
तैसा कहने का नाम ऋजुसूत्र है। जो सर्वथा अनादिनिधन द्रव्य का निषेध कर केवल पर्यायों को ही अपने-अपने समय में सच्चा मानता है, . वह ऋजुसूत्राभास है। जैसे-बौद्धमत
(स्याद्वाद मञ्जरी, पृ० २०४) काल, कारक, लिङ्ग आदि के भेद से शब्द के कथञ्चित् अर्थ-भेद का कथन करना शब्दनय है । अर्थ-भेद के बिना शब्दों की एकान्तरूप से 'भिन्नता का कथन करना शब्दनयाभास है।
विशेष-लिंग, संख्या और साधन आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। लिंग व्यभिचार, यथा-पुष्य, तारका और नक्षत्र । ये भिन्न-भिन्न लिंग के शब्द हैं । इनका मिलाकर प्रयोग करना लिंग व्यभिचार है । संख्या व्यभिचार यथा--'जलं आपः, वर्षाः ऋतुः, आम्रा वनम्, वरणाः नगरम्' ये एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्द हैं। इनका विशेषण विशेष्य रूप से प्रयोग करना संख्या व्यभिचार है । साधन व्यभिचार यथा-'सेना पर्वतमधिवसति' सेना पर्वत पर है। यहाँ अधिकरण कारक के अर्थ में सप्तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति है, इसलिये यह साधन व्यभिचार है। पुरुष व्यभिचार यथा--'एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि यातस्ते पिता' = आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊँगा, नहीं जाओगे। तुम्हारे पिता गये । यहाँ मन्यसे के स्थान में मन्ये और यास्याभि के स्थान पर यास्यसि क्रिया का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह पुरुष व्यभिचार है। ___ काल व्यभिचार-विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता = इसका विश्वदृश्वा 'पुत्र होगा। यहाँ विश्वदृश्वा कर्ता रखकर जनिता क्रिया का प्रयोग किया गया है इसलिए यह उभय व्यभिचार है अथवा भाविकृत्यासीत् होने वाला कार्य हो गया यहाँ होने वाले कार्य को हो गया बतलाया गया है। इसलिए यह काल व्यभिचार है। उपग्रह व्यभिचार यथा-सतिष्ठते प्रतिष्ठित विरमति उपरमति यहाँ सम् और प्र उपसर्ग के कारण स्था धातु का आत्मने पद प्रयोग तथा 'वि' और 'उप' उपसर्ग के कारण रम् धातु का परस्मैपद में प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रह है। यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित
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