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________________ २२२ प्रमेयरत्नमालायां सङ ग्रहगृहीतभेदको व्यवहारः । काल्पनिको भेदस्तदाभासः । शुद्धपर्यायग्राही प्रतिपक्षसापेक्ष ऋजुसूत्रः । क्षणिककान्तनयस्तदाभासः । जो सच्चा मानता है, उस नय को महासंग्रह कहते हैं। जैसे सामान्य सत्त्व धर्म की अपेक्षा सम्पूर्ण विश्व एक है। सत्तासामान्य को केवल स्वीकार करने वाला तथा शेष अन्य धर्मों का निषेध करने वाला जो एक सत्ता सामान्य रूप विचार है, वह महासंग्रहाभास है। जैसे सत्ता ही केवल सच्चा तत्त्व या पदार्थ है। क्योंकि सत्ता के अतिरिक्त जो विशेष धर्म माने जायं, उन धर्मों का कुछ भी अवलोकन नहीं होता है। द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य धर्मों को मानने वाला तथा उन सामान्य धर्मों के साथ रहने वाले विशेष विशेष धर्मों की तरफ हस्ति की दृष्टि के समान नहीं देखने वाला अवान्तर संग्रह या अपरसंग्रह कहलाता है। जैसे द्रव्यत्व धर्म की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गलादि सभी द्रव्य एक हैं। केवल द्रव्यत्वादि सामान्य धर्मों को स्वीकार करता हुआ जो उन सामान्य धर्मों के साथ के विशेष विशेष धर्मों का निषेध करता हो, वह अपरसंग्रहाभास है । जैसे-द्रव्यत्व ही सच्चा तत्त्व है; क्योंकि द्रव्यत्व से भिन्न द्रव्य का कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता है। (स्याद्वाद मंजरी, पृ० २०३) संग्रहनय से गृहीत पदार्थ का भेद करने वाला व्यवहारनय है। भेद व्यवहार काल्पनिक है । इस प्रकार कहना व्यवहाराभास है। विशेष-संग्रहनय के द्वारा जो एक रूप माने जाते हैं उनमें जो विचार ऐसा स्वीकार कराता हो कि व्यवहार के अनुकूल यह जुदा-जुदा है, उसको व्यवहार से कहते हैं जैसे-जो संग्रह की अपेक्षा एक सद्रूप कहा है, वह द्रव्य है या पर्याय ? यह नय और भी इस प्रकार के भेदों को ठीक मानता है जो द्रव्य पर्यायादिकों में झूठा भेद मानता है, वह व्यवहारनयाभास समझा जाता है। जैसे-चार्वाक का मत (स्याद्वाद मञ्जरी, पृ० २०३) प्रतिपक्ष की अपेक्षा रहित शुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्रनय है । क्षणिक एकान्तरूप तत्त्व को मानना ऋजुसूत्राभास है। विशेष-ऋजु अर्थात् केवल वर्तमान क्षणवर्ती, पर्याय को जो प्रधानता -से ग्रहण करता हो, उस अभिप्राय को ऋजुसूत्र कहते हैं। जैसे-इस समय सुखी है, इस समय दुःखी है, इत्यादि वर्तमान पर्याय रूप जैसा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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