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प्रमेय रत्नमालायां
समभिरूढः । पर्यायनानात्वमन्तरेणापीन्द्रादिभेदकथनं तदाभासः क्रियाश्रयेण भेदप्ररूपणमित्थम्भावः । क्रियानिरपेक्षत्वेन क्रियावाचकेषु काल्पनिको व्यवहारस्तदाभास इति ।
इति नय-तदाभासलक्षणं सङ्क्षेपेणोक्तम्, विस्तरेण नयचक्रात्प्रतिपत्तव्यम् ।
मानता है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता ।
अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के ( सर्वार्थसिद्धि, १1३३ )
पर्याय के भेद से पदार्थ के नानापने का निरूपण करने वाला समभिरूढनय है । पर्याय के नानात्व के बिना ही इन्द्रादि के भेद का कथन करना समभिरूढ़नयाभास है ।
विशेष - पर्यायवाची शब्दों में भी शब्द सिद्धिविषयक भेद है, इसलिये उनके वाच्य अर्थों को जुदा मानने वाला समभिरूढ़ नय है । जैसे— परम ऐश्वर्य की अपेक्षा इन्द्र कहना उचित है, शक्ति की अपेक्षा शक्र कहना उचित है, पुरों को विदीर्ण करने वाले की अपेक्षा पुरंदर कहना ठीक है । इत्यादि और भी जो पर्यायवाची शब्द होते हैं वे सव शब्दभेद के कारण कुछ न कुछ भेद ही दिखाते हैं । ( स्याद्वाद मञ्जरी, पृ० २०४ ) करना एवम्भूत नय है । क्रिया शब्दों में काल्पनिक व्यवहार
क्रिया के आश्रय से भेद का निरूपण की अपेक्षा से रहित होकर क्रियावाचक एवम्भूताभास है । विशेष - जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय कराने वाले नय को एवंभूत नय कहते हैं । आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है, उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का
प्रयोग करना युक्त है, अन्य समय में नहीं । जभी आज्ञा ऐश्वर्य वाला हो, तभी इन्द्र है, अभिषेक करने वाला नहीं, और न पूजा करने
वाला ही । सोती हुई ही ।
जब गमन करती हो, तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो, उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवम्भूत नय है । यथा — इन्द्र रूप ज्ञान से परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्नि रूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है । ( सर्वार्थसिद्धि, १1३३ )
इस प्रकार नय और नयाभास के लक्षण संक्षेप में कहे गये हैं विस्तार से नयचक्र से जानना चाहिये ।
विशेष – नय की अनेक परिभाषायें दी गई हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
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