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प्रस्तावना
उपयुक्त प्रमाणों के आधार पर माणिक्यनन्दि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। __ माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख की रचना की। यह जैन न्याय का आदि सूत्र ग्रन्थ है । इसके निर्माण में पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के साथ-साथ बौद्ध परम्परा के आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीति के ग्रन्थों से पर्याप्त सहायता ली गई है ।' ये सूत्र सरल, विशद, सुबोध, सारवान् और असन्दिग्ध हैं। इनकी शैली और विषयवस्तु की स्पष्टता से प्रभावित होकर परवर्ती जैन सूत्रग्रन्थकारों ने कहीं शब्दशः और कहीं अर्थशः इनका उपयोग किया है। इसके लिए श्वेताम्बर आचार्य देवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोक तथा आचार्य हेमचन्द्रकृत प्रमाणमीमांसा द्रष्टव्य है। इन सूत्रों की उपयोगिता इसी से स्पष्ट होती है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन पर १२ हजार श्लोक प्रमाग प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसी बड़ी टीका लिखी । लघु अनन्तवीर्यकृत परीक्षामुखपञ्जिका ( प्रमेयरत्नमाला ) तथा भट्टारक चारुकीर्तिकृत प्रमेयरत्नालङ्कार की रचना भी परीक्षामुख की टीका के रूप में हुई । केशववर्णी ने परीक्षामुख के 'स्वापूर्थिव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' पर एक स्वतन्त्र कृति प्रमेयकण्ठिका का प्रणयन किया ।
परीक्षामुख का प्रमुख विषय प्रमाण और प्रमाणाभास है। समस्त ग्रन्थ में २०८ सूत्र हैं तथा यह छः समुद्देशों में विभक्त है। प्रथम समुदेश में प्रमाण का स्वरूप, स्त्रोक्त प्रमाण लक्षण में ज्ञान रूप विशेषण का समर्थन, ज्ञान की निश्चयात्मकता, ज्ञान को स्वयंप्रकाशता और प्रत्यक्षता तथा प्रमाण का प्रामाण्य गित है । इस समुद्देश में १३ सूत्र हैं।
द्वितीय समद्देश में १२ सूत्र हैं। इसमें प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद, प्रत्यक्ष का लक्षण, विशदता का लक्षण, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष , अर्थ और आलोक की सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के प्रति कारणता का अभाव, प्रत्यक्ष प्रमाण में अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम लक्षण वाली योग्यता से पदार्थों को जानने को व्यवस्था, पदार्थ को ज्ञान का कारण होने से परिच्छेद्य मानने की मान्यता का निराकरण तथा अतीन्द्रिय स्वरूप मुख्य प्रत्यक्ष का लक्षण प्रतिपादित है ।
। तृतीय समुद्देश ९७ सूत्रों में विभक्त है। इसमें परोक्ष का लक्षण, परोक्ष के भेद, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क का लक्षण एवं उदाहरण , अनुमान का लक्षण , हेतु का लक्षण, अविनाभाव का लक्षण, सहभावनियम और क्रमभावनियम, साध्य का लक्षण, साध्य के विशेषणों की सार्थकता, धर्मी का प्रति१. उदाहरणार्थ देखिये-न्यायकुमुदचन्द्र, प्र० भाग ( प्रस्तावना ), पृ० ८०-८१,
प्र० माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला ।
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