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प्रमेयरत्नमालायां आचार्य माणिक्यनन्दि ___ आचार्य माणिक्यनन्दि नन्दि संघ के प्रमुख आचार्य थे। टिप्पणकार ने उन्हें धारानगरी का निवासी बतलाया है
'धारानगरीनिवासिनः श्रीमन्माणिक्यनन्दिभट्टारकदेवाः परीक्षामुखाख्यं 'प्रकरणमारचयाम्बभूवुः ।'
माणिक्यनन्दि अकलङ्क (७२०-७८० ई० ) के बाद हुए, यह बात सुनिश्चित है; क्योंकि प्रमेयरत्नमाला के रचयिता ने उन्हें अकलङ्कदेव का उत्तरवर्ती बतलाया है
अकलङ्कवचनाम्भोधेरुदधे यने धीमता। न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।। प्रमेयरत्नमाला-२ अर्थात् जिस बुद्धिमान् ने अकलंकदेव के वचन रूप समुद्र से न्यायविद्या रूप अमृत का उद्धार किया, उस माणिक्यनन्दि नामक आचार्य के लिए हमारा नमस्कार हो ॥ २ ॥
___ अकलदेव के ग्रन्थों और माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख सूत्र की तुलना करने • पर स्पष्ट द्योतित होता है कि माणिक्यनन्दि ने अकलङ्कदेव के ग्रन्थों का अनुशीलन ‘किया था।
अकलङ्कदेव ने प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही लिखा हैप्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।
( अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ० १७५ ) माणिक्यनन्दि ने अनधिगतार्थाधिम को ही ध्यान में रखकर अपने प्रमाण लक्षण में अपूर्व पद को स्थान दिया है--
स्वापूर्थिव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ॥ परीक्षामुख १११ इसी प्रकार अन्य स्थल भी तुलना के योग्य हैं।
आचार्य नयनन्दि ने, जिनको सुदंसणच रिउ रचना वि० सं० ११०० में धारानरेश भोज के समय में पूर्ण हुई, अपने को माणिक्यनन्दि का शिष्य लिखा है--
जिणिदागमभासणे एयधित्तो तवायारणिट्ठाइ लद्धाइजुत्तो । णरिंदामरिंदाहिवाणंदवंदी हुओ तस्स सोसो गणी रामणंदी ॥ असेसाण गंथंमि पारंमि पत्तो तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो। गुणायासभूवो सुल्लोकणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी ।। पढम सीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयणंदी अणिदियउ । चरिउ सुदंसणणाहहो तेण अबाह हो विरइ बुह अहिणंदिउ ।
(सुदंसण चरिउ )
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