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________________ षष्ठः समुद्देशः २०७ अपिशब्दान्न केवलं पक्ष-सपक्षयोरिति द्रष्टव्यम् । स च द्विविधो विपक्षे निश्चितवृत्तिः शङ्कितवृत्तिश्चेति । तत्राद्यं दर्शयन्नाह - निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत् ॥ ३१ ॥ कथमस्य विपक्षे निश्चिता वृत्तिरित्याशङ्कयाऽऽह आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३२॥ विशेष-एक धर्म में जो नियत हो, वह ऐकान्तिक है, उससे विपरीत अनेकान्तिक है। जो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष इन तीनों में रहना अनेकान्तिक है। दूसरों के द्वारा माना गया पक्षत्रय वाष्पादि अनैकान्तिकों का विस्तार सामान्य रूप से इस लक्षण से भिन्न नहीं है। पक्षत्रय व्यापक, जैसे-शब्द अनित्य है; क्योंकि प्रमेय है। सपक्ष और विपक्ष के एक देश में पाया जाने वाला। जैसे-शब्द नित्य है; क्योंकि अमूर्त है। पक्ष और सपक्ष में व्यापक तथा विपक्ष के एक देश में पाया जाने वाला । जैसेयह गौ है; क्योंकि इसके विषाण है। पक्ष तथा विपक्ष में व्यापक तथा सपक्ष के एक देश में रहने वाला। जैसे-यह गौ नहीं है, क्योंकि इसके विषाण है। पक्षत्रय के एक देश में रहने वाला । जैसे वचन और मन अनित्य हैं; क्योंकि अमूर्त हैं। पक्ष और सपक्ष के एक देश में रहने वाला तथा विपक्ष में व्यापक जैसे-दिक् , काल और मन अद्रव्य हैं; क्योंकि अमूर्त हैं। सपक्ष और विपक्ष में व्यापक तथा पक्ष के एक देश में रहने वाला, जैसे-पृथिवी, अप, तेज, वायु और आकाश अनित्य हैं, क्योंकि उनमें गन्ध नहीं है। केवल पक्ष और सपक्ष में रहने से अनैकान्तिक नहीं होता है, यह बात अपि शब्द से सूचित होता है। सूत्र में कहे गए आप शब्द से न केवल पक्ष-सपक्ष में रहने वाले हेतु को ग्रहण करना ( अपितु विपक्ष में भी रहने वाले हेतु को ग्रहण करना चाहिए )। वह दो प्रकार का होता है-(१) विपक्ष में निश्चितवृत्ति वाला और (२) शङ्कितवृत्ति वाला। आदि के भेद को दिखलाते हुए कहते हैं सूत्रार्थ-शब्द अनित्य है; क्योंकि वह प्रमेय है। जैसे-घट। यह निश्चित विपक्षवृत्ति अनेकान्तिक का उदाहरण है ।। ३१ ॥ इस प्रमेयत्व हेतु की विपक्ष में वृत्ति कैसे निश्चित है, ऐसी आशंका के होने पर आचार्य कहते हैं सूत्रार्थ-क्योंकि नित्य आकाश में भी इस प्रमेयत्व हेतु के रहने का निश्चय है ॥ २२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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