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________________ २०८ प्रमेयरत्नमालायां शङ्कितवृत्तिमुदाहरति शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥ ३३ ॥ अस्यापि कथं विक्षे वृत्तिराशङ्कयत इत्यत्राह सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३४ ॥ अविरोधश्च ज्ञानोत्कर्षे वचनानामपकर्षादर्शनादिति निरूपितप्रायम् । अकिञ्जित्करस्वरूपं निरूपयतिसिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ॥ ३५ ॥ तत्र सिद्धे साध्ये हेतुरकिञ्चित्कर इत्युदाहरति सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ॥ ३६ ॥ कथमस्याकिञ्चित्करत्वमित्याह किञ्चिदकरणात् ॥ ३७॥ शङ्कित विपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास का उदाहरण देते हैं सूत्रार्थ-सर्वज्ञ नहीं है। क्योंकि वह वक्ता है, यह शङ्कित विपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास का उदाहरण है।। ३३ ।। ___इस हेतु का विपक्ष में रहना कैसे शङ्कित है, इसके विषय में कहते हैं सूत्रार्थ क्योंकि सर्वज्ञत्व के साथ वक्तापने का विरोध नहीं है ॥३४॥ अविरोध इसलिए है कि ज्ञानोत्कर्ष में वचनों का अपकर्ष नहीं देखा जाता है। यह बात प्रायः निरूपित की जा चुकी है। अकिञ्चित्कर हेत्वाभास के स्वरूप का निरूपण करते हैं सूत्रार्थ-साध्य के सिद्ध होने पर और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने पर प्रयुक्त हेतु अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहलाता है ।। ३५ ॥ साध्य के सिद्ध होने पर दिया गया हेतु अकिञ्चित्कर है, इसका उदाहरण देते हैं सूत्रार्थ-शब्द श्रवण इन्द्रिय के विषय के रूप में सिद्ध है; क्योंकि वह शब्द है ।। ३६ ॥ ___ इस शब्दत्व हेतु के अकिञ्चित्करता कैसे है ? इसके विषय में कहते हैं सूत्रार्थ-क्योंकि इस शब्दत्व हेतु ने कुछ भी नहीं किया है ।। ३७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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