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षष्ठः समुद्देशः
२०५: द्वितीयासिद्धभेदमुपदर्शयतिअविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धि प्रत्यग्निरत्र धूमात् ॥ २५ ॥ अस्याप्यसिद्धता कथमित्यारेकायामाह
तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते सन्देहात् ॥ २६ ॥ तस्येति मुग्धबुद्धि प्रतीत्यर्थः ।
विशेष-विशेष्यासिद्ध आदि जो असिद्ध के प्रकार नैयायिकादि के द्वारा माने गए हैं, वे असत्सत्ताकत्वलक्षण असिद्ध के प्रकार से अन्तभंत हो जाते हैं, इससे भिन्न नहीं हैं। विशेष्यासिद्ध जैसे शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें सामान्यपना होने के साथ-साथ चाक्षुषपना है। विशेषणासिद्ध-जैसेशब्द अनित्य है; क्योंकि उसमें चाक्षुपना होने के साथ-साथ सामान्यपना है। आश्रयासिद्ध, जैसे-प्रधान है, विश्वपरिणामित्व से। वस्तुतः प्रधान नहीं है, यह भाव है। आश्रयैकदेशासिद्ध जैसे-परमाणु, प्रधान, आत्मा तथा ईश्वर नित्य है। क्योंकि ये किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। व्यर्थविशेष्यासिद्ध जैसे-परमाणु अनित्य है, क्योंकि कृतक होने के साथ-साथ उसमें सामान्यपना है। व्यर्थविशेषणासिद्ध, जैसे-परमाणु अनित्य है, क्योंकि सामान्यपना होने के साथ-साथ उसमें कृतकपना है। व्यधिकरणासिद्ध, जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि दूसरे ने बनाया है । भागासिद्ध, जैसे-शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें प्रयत्नानन्तरीयकपना है। व्यधिकरणासिद्धपना परप्रक्रिया का प्रदर्शनमात्र है, वस्तुतः व्यधिकरण के भी हेतूदोष नहीं है 'उदेष्यति शकट कृत्तिकोदयात्' इत्यादि के गमकपने की प्रतीति है। भागासिद्ध के भी अविनाभाव के सद्भाव से गमकत्व है हो। वस्तुतः प्रयत्नानन्तरीयकत्व अनित्यत्व के बिना कहीं भो भी दिखाई नहीं देता है । जितने शब्द में वह प्रवृत्त होता है, उससे शब्द का अनित्यपना सिद्ध होता है।
असिद्ध हेत्वाभास के दूसरे भेद को बतलाते हैं
सत्रार्थ-यहाँ अग्नि है, क्योंकि धूम है, यह अविद्यमान निश्चय वाले सग्दिग्धासिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण ।। २५ ॥
इस हेतु के भी असिद्धता कैसे है ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ क्योंकि उसे भूत संघात में वाष्पादि के रूप से सन्देह हो सकता है ।। २६ ॥
उसे अर्थात् मुग्धबुद्धि पुरुष को। ( भोला भाला पुरुष विद्यमान धूम
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