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________________ षष्ठः समुद्देशः १९९ प्रतिभासनाद्धेतोरसिद्धः। शाखाचन्द्रमसोरेककालदर्शनानुपपत्तिप्रसक्तेश्च । न च तत्र क्रमेऽपि यौगपद्याभिमान इति वक्तव्यम्, कालव्यवधानानुपलब्धः। किञ्चक्रमप्रतिपत्तिः प्राप्तिनिश्चये सति भवति । न च क्रमप्राप्तौ प्रमाणान्तरमस्ति । तैजसत्वमस्तीति चेन्न; तस्या सिद्धेः । अथ चक्षुस्तैजसम्; रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्, प्रदीपवदिति । तदप्यपर्यालोचिताभिधानम्,मण्यञ्जनादेः पार्थिवत्वेऽपि रूपप्रकाशकत्वदर्शनात् । पृथिव्यादिरूपप्रकाशक त्वे पृथिव्याधारब्धत्वप्रसङ्गाच्च । तस्मात्सन्निकर्षस्याव्यापकत्वान्न प्रमाणत्वम्, करणज्ञानेन व्यवधानाच्चेति । और बादल के समूह आदि से व्यवधान को प्राप्त भी पदार्थों का चक्षु इन्द्रिय से प्रतिभास होता है, अतः आपका हेतु असिद्ध है। तथा शाखा और चन्द्रमा के एक ही समय में दर्शन नहीं होने का प्रसंग आता है। शाखा और चन्द्रमा के एक काल में ग्रहण करने में क्रम होने पर भी एक साथ ग्रहण होने का अभिमान होता है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए; क्योंकि शाखा और चन्द्रमा के एक साथ ग्रहण करने पर काल का व्यवधान उपलब्ध नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि क्रम का ज्ञान क्रम की उपलब्धि का निश्चय होने पर ही हो सकता है। क्रम की प्राप्ति में अन्य कोई प्रमाण भी नहीं है। यदि कहा जाय कि क्रम प्राप्ति के निश्चय में तेजसत्व प्रमाण है अर्थात् चक्षु प्राप्त अर्थ की प्रकाशक है, तैजस होने के कारण से चक्षु के तेजोद्रव्य होने से क्रम से हो शाखा और चन्द्रमा की प्राप्ति हैं, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु के तैजसपना असिद्ध है। ( चक्षु अतैजस है; क्योंकि उसमें भासुरता नहीं पायी जाती है, इस हेतु से चक्षु का तैजसपना असिद्ध है। यदि आप कहें कि चक्ष तैजस है; क्योंकि वह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के मध्य में रूप को ही प्रकाशक है। जैसे दीपक रूप का ही प्रकाशक है। आपका यह बिना विचार किए किया गया कथन है; क्योंकि मणि और अञ्जन आदि के पार्थिवपना होने पर भी रूप का प्रकाशकपना देखा जाता है। पृथिवी आदि के रूप का प्रकाशक होने पर उसके पृथिवी आदि से आरब्ध होने का प्रसंग आता है। इसलिए सन्निकर्ष के अव्यापकता होने से प्रमाणता नहीं है । और करणज्ञान से व्यवधान भी है। प्रमाण की उत्पत्ति में सन्निकर्ष का करण ज्ञान से व्यवधान है। जो साधकतम होता है, वह करण होता है, इस नियम से साधकतम करण ज्ञान ही है, सन्निकर्प नहीं है। (यहाँ तक सामान्य प्रमाणाभास का प्रतिपादन करके अब विशेष प्रमाणाभास का प्रतिपादन करते हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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