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________________ । १९८ प्रमेयरत्नमालायां अथ चक्षुः प्राप्तार्थपरिच्छेदकम्, व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वात् प्रदीपवदिति तसिद्धि रिति मतम्, तदपि न साधीयः, काचाभ्रपटलादिव्यवहितार्थानामपि चक्षुषा के ग्रहण होने पर यह सन्निकर्ष ही होता है । घटगत रूपादि गुणों के समान घटगत परिमाणादि का ग्रहण भी संयुक्त समवाय सम्बन्ध से ही होता है, परन्तु घटगत परिमाण आदि के ग्रहण में इन्द्रिय और अर्थ दोनों के अवयव, दोनों के अवयवी, पहिले का अवयव और दूसरे का अवयवी या दूसरे का अवयव और पहिले का अवयवी इन चार के चतुष्टय सन्निकर्ष को भी अतिरिक्त कारण मानना अभीष्ट है; क्योंकि उस चतुष्टय सन्निकर्ष के अभाव में परिमाण आदि के साथ चक्षुः का संयुक्त समवाय होने पर भी दूर में पदार्थ के परिमाणादि का ग्रहण नहीं होता । इसलिए परिमाणादि के ग्रहण में 'संयुक्त समवाय' के अतिरिक्त चतुष्टय सन्निकर्ष को भी कारण मानना आवश्यक है। जब श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द का ग्रहण होता है, तब श्रोत्र इन्द्रिय और शब्द अर्थ होता है। इन दोनों का सम्बन्ध समवाय ही है; क्योंकि कर्ण शष्कुली से घिरा हुआ आकाश श्रोत्र है। इसलिए श्रोत्र के आकाश रूप होने से और शब्द के आकाश का गुण होने तथा गुण-गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से श्रोत्र के शब्द का ग्रहण समवाय सम्बन्ध से होता है । जब शब्द में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले शब्दत्व आदि सामान्य का श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है, तब श्रोत्र इन्द्रिय और शब्दत्व आदि सामान्य अर्थ है। इन दोनों का सन्निकर्ष समवेत समवाय ही होता है । श्रोत्र में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले शब्द में शब्दत्व जाति का समवाय होने से श्रोत्रेन्द्रिय से शब्दत्व जाति का ग्रहण समवेत समवाय सम्बन्ध से ही होता है। जब चक्षु से संयुक्त भूतल में 'इस भूतल में घट का अभाव है,' इस प्रकार घटाभाव का ग्रहण होता है, तब विशेष्य विशेषणभाव सम्बन्ध होता है। तब चक्षु से संयुक्त भूतल का घटाभाव विशेषण होता है और भूतल विशेष्य होता है। __ यदि कहा जाय कि चक्षु प्राप्त करके पदार्थ का निश्चय कराने वाली है, किन्तु अन्य पदार्थ के व्यवधान के कारण वह अपने विषयभूत पदार्थ का प्रकाशन नहीं कर पाती है। जैसे दीपक । इस प्रकार चक्षु की प्राप्यकारिता सिद्ध होती है। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि काच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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