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प्रमेयरत्नमालायां
प्रत्यक्षाभासमाह
अवैशद्ये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद धूमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥ ६ ॥
परोक्षाभासमाहवैशोऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥७॥
प्राक् प्रपञ्चितमेतत् । परोक्षभेदाभासमुपदर्शयन् प्रथम क्रमप्राप्तं स्मरणाभासमाह
अतस्मिस्तिदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा ॥८॥
प्रत्यक्षाभास कहते हैं
सूत्रार्थ-बौद्ध का अविशद निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है। जैसे-( व्याप्ति स्मरणादि के बिना) अकस्मात् धुयें के देखने से उत्पन्न हुआ अग्नि का ज्ञान अनुमानाभास है ॥६॥
विशेष-बौद्ध परिकल्पित निर्विकल्प प्रत्यक्ष अविशद है, तथापि बौद्ध विशद कहता है। जैसे धुआँ, भाप आदि का निश्चय हुए बिना व्याप्ति ग्रहण के अभाव से अकस्मात् धुयें से उत्पन्न हुआ जो अग्निविज्ञान है, वह प्रत्यक्षाभास है, क्योंकि निश्चय नहीं है। इसी प्रकार बौद्ध परिकल्पित जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है, वह प्रत्यक्षाभास है; क्योंकि निश्चय नहीं है।
परोक्षाभास कहते हैं
सूत्रार्थ-विशद ज्ञान होने पर भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है । जैसे मोमांसक का करणज्ञान ॥७॥
विशेष-मीमांसक मत में करण ज्ञान अन्य ज्ञान से जानने योग्य है। परन्तु करण ज्ञान में बिना किसी व्यवधान के प्रतिभासलक्षण वैशद्य असिद्ध नहीं है; क्योंकि अपना अर्थ वहाँ अन्य प्रतीति से निरपेक्ष प्रतिभासित होता है।
करणज्ञान का पहले विस्तृत विवेचन किया गया है।
परोक्ष भेदाभास को दिखलाते हुए प्रथम क्रमप्राप्त स्मरणाभास के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-पूर्व में अनुभव नहीं किए गए पदार्थ में 'वह है' अर्थात् वैसी
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