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चतुर्थः समुद्देशः
१७७ धर्माणामानन्त्यान्नानवस्था। तथा हि-यत्सामान्यं यश्च विशेषस्तयोरनुवृत्तव्यावृत्ताकारेण भेदः; तयोश्चार्थक्रियाभेदात्, तभेदश्च शक्तिभेदात् सोऽपि सहकारिभेदादित्यनन्तधर्माणामङ्गीकरणात् कुतोऽनवस्था ? तथा चोक्तम्
मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् ।।
वस्त्वानन्त्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था विचार्यते ॥ ३९ ॥ इति यो च सङ्कर-व्यतिकरौ तावपि मेचकज्ञाननिदर्शनेन सामान्यविशेषदृष्टान्तेन च परिहृतौ। अथ तत्र तथा प्रतिभासनं परस्यापि वस्तुनि तथैव प्रतिभासोऽस्तु;
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आकार से भेद है और अनुवृत्त-व्यावृत्ताकार का भेद अर्थक्रिया के भेद से है-गो गो, इस प्रकार का उदाहरण अनुवृत्ताकार का है, श्याम शुक्ल नहीं होता है, यह उदाहरण व्यावृत्ताकार का है। अर्थक्रिया का भेद उन दोनों की शक्तियों के भेद से है, वह शक्तिभेद भी सहकारिभेद से है। इस प्रकार अनन्त धर्मों के अङ्गीकार करने से अनवस्था कहाँ से हो सकती है ? जैसा कि कहा गया है
श्लोकार्थ-मूल का विनाश करने वाली अनवस्था को दूषण कहते हैं, किन्तु वस्तु के अनन्तपना होने पर अथवा विचार करने की असमर्थता होने पर ( वस्तुविकल्प की परिसमाप्ति होने पर ) अनवस्था दोष का विचार नहीं किया जाता है ॥ ३९ ॥
जो सङ्कर और व्यतिकर दोष कहे गए हैं, उनमें से सङ्कर मेचकज्ञान के उदाहरण से और व्यतिकर सामान्य-विशेष के दृष्टान्त से निराकृत कर दिए गए। ( पाँच वर्ण का मेचक नामक रत्न होता है। जैसे मेचक में नीलादि अनेक प्रतिभास होने पर यह कहना सम्भव नहीं है कि जिस रूप से पोत प्रतिभास है, उस रूप से पीत प्रतिभास भी है और नील प्रतिभास भी है, किन्तु भिन्न आकार से प्रतिभास है। उसी प्रकार एक ही वस्तु में भेद और अभेद को व्यवस्था भलीभाँति घटित होती है। ऐसा नहीं है कि जिस रूप से विशेष हो, उस रूप से सामान्य हो अथवा जिस रूप से सामान्य है, उस रूप से विशेष हो। इस प्रकार व्यतिकर दोष को अवकाश नहीं है। सामान्य ही विशेष है। जैसे-गोत्व) खण्डो, मुण्डी आदि गायों की अपेक्षा सामान्य है और भैंसा आदि की अपेक्षा विशेष है। इस प्रकार व्यतिकर दोष का निराकरण कर दिया गया।)
योग-मेचक वर्ण में उस प्रकार का (चित्राकार और सामान्य-विशेष रूप ) प्रतिभास होता है। - जैन-स्याद्वादियों के भी अनेकान्तात्मक वस्तु में उसी प्रकार भेदाभेद
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