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________________ १७८ प्रमेयरत्नमालायां तस्य पक्षपाताभावात् । निर्णीते संशयोऽपि न युक्तः, तस्य चलितप्रतिपत्तिरूपत्वादचलितप्रतिभासे दुर्घटत्वात् । प्रतिपन्ने वस्तुन्यप्रतिपत्तिरित्यतिसाहसम् । उपलब्ध्यभिधानादनुपलम्भोऽपि न सिद्धस्ततो नाभाव इति दृष्टेष्टाविरुद्ध मनेकान्तशासनं सिद्धम् । एतेनावयवावयविनोगुणगुणिनोः कर्मतद्वतोश्च कथञ्चिद् भेदाभेदौ प्रतिपादितौ बौद्धब्यो । अथ समवायवशाभिन्नेष्वप्यभेदप्रतीतिरनुपपन्न ब्रह्मतुल्यारूपज्ञानस्येति चेन्न; तस्यापि ततो भिन्नस्य व्यवस्थापयितुमशक्तेः । तथाहि - समवायवृत्तिः स्वसमवायिषु वृत्तिमती स्यादवृत्तिमती वा ? वृत्तिमत्त्व स्वेनैव वृत्त्यन्तरेण वा ? तावदाद्यः रूप से ही प्रतिभास हो । प्रतिभास किसी के विषय में पक्षपात नहीं करता है । मेचक आदि में प्रतिभास के बल से निर्णय हो जाने पर संशय भी युक्त नहीं है । संशय तो स्थाणु है या पुरुष है, इस प्रकार चलित ज्ञान रूप होता है, किन्तु स्थिर प्रतिभास रूप वस्तु में संशय दुर्घट है । प्रमाण से जानी हुई वस्तु में अप्रतिपत्ति नामक दोष कहना अति साहस है । अनेकान्तात्मक वस्तु की उपलब्धि के कथन से अनुपलम्भ भी सिद्ध नहीं होता है । अनुपलम्भ के अभाव के कारण अभाव नामक दोष भी प्राप्त नहीं होता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरुद्ध अनेकान्त शासन सिद्ध है । विरोधादि दोष के परिहार से - सामान्य और विशेष में कथञ्चित् भेद और अभेद सिद्ध करने से अवयव और अवयवी । जैसे कपाल और घट ), गुण और गुणी ( जैसे ज्ञान और आत्मा ) तथा क्रिया और क्रियावान् में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद प्रतिपादित किए गए समझना चाहिए । योग - जिसे ब्रह्म तुल्य ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे अल्पज्ञ पुरुष के समवाय सम्बन्ध के वश से भिन्न पदार्थों में भी अभेद की प्रतीति होती | ( अवयव अवयवी, जातिव्यक्ति, गुण- गुणी, क्रिया-क्रियावान्, नित्यद्रव्य और विशेष, इनमें जो सम्बन्ध होता है, वह समवाय है । ) जैन - यह बात ठीक नहीं है; क्योंकि समवाय सम्बन्ध की भी पदार्थों से भिन्न व्यवस्था करना सम्भव नहीं है । इसी बात को स्पष्ट करते हैंसमवाय सम्बन्ध अपने समवायी पदार्थों में ( द्रव्यादि पाँच में तथा गुण गुणी आदि में ) सम्बन्ध वाला है अथवा असम्बन्ध वाला है? यदि सम्बन्ध वाला है तो समवाय से ही अपने समवायियों में सम्बन्ध वाला है या अन्य सम्बन्ध से ? समवाय सम्बन्ध से अपने समवायियों में समवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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