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________________ प्रस्तावना ११ नहीं किया । उनकी सामान्य शैली है - धर्मकीर्ति के विचारों को पहले प्रस्तुत करना, अनन्तर उसका खण्डन करना । इससे स्पष्ट द्योतित होता है कि अकलंक की कृतियों का उद्देश्य लगातार जैन सिद्धान्तों को बौद्ध तथा विशेष रूप से धर्मकीर्ति के प्रहारों से बचाना था । शैली में भी अकलंक ने धर्मकीर्ति का अनुसरण किया है; क्योंकि धर्मकीर्ति की भांति अकलंक भी समझने में कठिन, सुव्यवस्थित, ठोस और संक्षिप्त शैली का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार जैन न्याय के विकास में अकलङ्क का योग अप्रतिम है । हरिभद्रसूरि आचार्य हरिभद्र बहुश्रुत विद्वान् थे । उन्होंने आगम, आचार, योग, कथा, ज्योतिष, दर्शन इत्यादि अनेक विधाओं पर साहित्य रचना की । उनकी दार्शनिक कृतियाँ निम्नलिखित हैं - १. अनेकान्तजय पताका, २. अनेकान्तवाद प्रवेश, ३. अनेकान्त सिद्धि, ४. आत्मसिद्धि, ५ तत्त्वार्थ सूत्र लघुवृत्ति, ६. द्विजवदनचपेटा, ७. धर्मसंग्रहणी ( प्राकृत), ८ न्याय प्रवेश टीका, ९ न्यायावतारवृत्ति, १०. लोकतत्त्वनिर्णय, ११. शास्त्रवार्ता समुच्चय, १२. षड्दर्शन समुच्चय, १३. सर्वज्ञसिद्धि, १४. स्याद्वाद कुचोद्य परिहार | हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने प्रतिपक्षी के प्रति जैसी हार्दिक बहुमान वृत्ति प्रदर्शित की है, वैसी दार्शनिक क्षेत्र में दूसरे किसी विद्वान् ने, कम से कम उनके समय तक तो प्रदर्शित नहीं की । शान्तरक्षित ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर जैन मन्तव्यों की परीक्षा की है तो हरिभद्र ने बौद्ध मन्तव्यों की, परन्तु दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं । शान्तरक्षित मात्र खण्डनपटु हैं, किन्तु हरिभद्र तो विरोधी मत की समीक्षा करने पर भी जहाँ तक सम्भव हो कुछ सार निकालकर उस मत के पुरस्कर्ता के प्रति सम्मानवृत्ति भी प्रदर्शित करते हैं । क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन तीन बौद्ध वादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्र इन वादों के प्रेरक दृष्टि बिन्दुओं को अपेक्षा विशेष से न्याय्य स्थान देते हैं और स्वसम्प्रदाय: के पुरस्कर्ता ऋषभ, महावीर आदि का जिन विशेषणों से वे निर्देश करते हैं, वैसे ही विशेषणों से उन्होंने बुद्ध का भी निर्देश किया है और कहा है कि बुद्ध १. Nagin J. Shah : Akalanka's Critieism of Dharmakirti'sPhilosophy, p. 39. २. पं० सुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १०९ । ३. पं० सुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १०९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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