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________________ १२ प्रमेयरत्नमालायां जैसे महामुनि एवं अर्हत् की देशना अर्थहीन नहीं हीं सकती। ऐसा कहकर उन्होंने सूचित किया है कि क्षणिकत्ल की एकांगी देशना आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही हो सकती है। इसी भाँति बाह्य पदार्थों में आसक्ति रखने वाले आध्यात्मिक तत्त्व से नितान्त पराङ्मुख अधिकारियों को उद्दिष्ट करके ही बुद्ध ने विज्ञानवाद का उपदेश दिया है तथा शून्यवाद का उपदेश भी उन्होंने जिज्ञासु अधिकारी विशेष को लक्ष्य में रखकर ही दिया है, ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार के अनेक प्रसङ्ग हैं, जिनमें हरिभद्र की अपनी विशिष्ट दृष्टि की झलक मिलती है। विद्यानन्द आचार्य विद्यानन्द ई० ७७० से ८४० के विद्वान माने जाते हैं। उन्होंने इतरदार्शनिकों के साथ-साथ नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर तथा धर्मोत्तर इन बौद्ध दार्शनिकों के ग्रन्थों का सर्वाङ्गीण अभ्यास किया था । इसके साथ ही साथ जैन दार्शनिक तथा आर्गामक साहित्य भी उन्हें विपुल मात्रा में प्राप्त हुआ था। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित हैं १. विद्यानन्द महोदय २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ३. अष्टसहस्रो ४. युक्त्यनुशासनालङ्कार ५. आप्तपरीक्षा ६. प्रमाणपरीक्षा ७. पत्रपरीक्षा ८. सत्यशासन परीक्षा ९. श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र । विद्यानन्द महोदय सम्प्रति अनुपलब्ध है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्य के रूप में मीमांसा श्लोकवार्तिक के अनुकरण पर की गयी । भट्टाकलङ्क की अष्टशती के गूढ़ रहस्य को समझने के लिए अष्टसहस्री की रचना की गयी। इसके गौरव को आचार्य विद्यानन्द ने स्वयं इन शब्दों में व्यक्त किया है-हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है । केवल इस अष्टसहस्री को सुन लीजिए। इतने से ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त का ज्ञान हो जायगा। युक्त्यनुशासनालङ्कार आचार्य समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन को टोका है । आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और सत्यशासन परीक्षा परीक्षान्त ग्रन्थ हैं, जो दिङ्नाग १. न चैतदपि न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः । सुवैद्यवद्विना कार्यं द्रव्यासत्यं न भोषते ।।-शास्त्रवार्तासमुच्चय-४६६ २. वही, ४६५ । ३. वही, ४७६ । ४. प्रमाण परीक्षा (प्रस्तावना), पृ० १११ । ५. आप्तमीमांसा तत्त्वदीपिका ( प्रस्तावना ) पृ० ५४ । ६. श्रोतव्याष्टसहस्रो श्रुतैः किमन्यैः सहस्र संख्यानः । विज्ञायेत यमैव स्त्रसमयपरसमय सद्भावः ॥ अष्टसहस्री पृ० १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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