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प्रमेयरत्नमालायां
प्रवेश को पृथक्; क्योंकि उसमें पृथक् मंगलाचरण किया गया है और नयप्रवेश के विषयों को दुहराया है। इससे ज्ञात होता है कि अकलंकदेव ने प्रथम दिङ्नाग के न्यायप्रवेश की जैन न्याय में प्रवेश कराने के लिए प्रमाणनयप्रवेश बनाया था । पीछे या तो स्वयं अकलंकदेव ने या अनन्तवीर्य ने तीनों प्रकरणों की लघीयस्य संज्ञा रखी ।
न्यायविनिश्चय - धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की तरह न्यायविनिश्चय की रचना गद्यपद्यमय रही है । वादिराजसूरि ने इस पर न्यायविनिश्चय विवरण टीका बनाई। जिसके आधार पर न्यायविनिश्चय के पद्यभाग की पुनः स्थापना तो की गई । किन्तु गद्यभाग के संकलन का साधन न होने से वह कार्य सम्पन्न न हो सका । न्यायविनिश्चय प्रमाणवाद तथा तर्कशास्त्र का ग्रन्थ है । इसमें प्रधान बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति तथा उनके अनुगामी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित तर्क सिद्धान्तों का प्रामाणिक वर्णन और विस्तृत समीक्षा है । यह अपनी व्यापक विवेचकता तथा अद्भुत युक्तिवाद के लिए ख्यात भारतीय तर्कशास्त्र का विश्वकोष है | २
सिद्धिविनिश्चय - सिद्धिविनिश्चय मूलश्लोक तथा उसकी वृत्ति दोनों अकलंककर्तृक हैं । इसके गद्य और पद्य दोनों अकलंकदेव के नाम से उद्धृत हैं । सिद्धिविनिश्चय में १२ प्रस्ताव हैं । इसमें प्रमाण, प्रमेय, नय और निक्षेप का विवेचन है । इसमें बौद्धों की प्रमाणमीमांसा, सन्तानवाद, निर्वाण तथा क्षणिकवाद इत्यादि विषयों की प्रकरणानुसार समीक्षा प्राप्त होती है ।
प्रमाणसंग्रह - यह अकलङ्कदेव की अन्तिम कृति है । इसमें प्रमाण और प्रमेय का वर्णन प्रौढ़शैली से किया गया है । अकलङ्कदेव का नाम बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति से जुड़ा हुआ है । अकलङ्क ने धर्मकीर्ति की शैली, भावना और विधि: का पूरी तरह अनुसरण किया है। उन्होंने धर्मकीर्ति की केवल मौलिक कृतियों काही अध्ययन नहीं किया, अपितु उन पर लिखी हुई सभो व्याख्याओं का अध्ययन किया । यह उन शब्दों से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है, जो उन्होंने धर्मकीर्ति की कृतियों और व्याख्याओं से उद्धृत किए हैं ।
अकलंक ने धर्मकीर्ति के सम्पूर्ण वाक्य को कभी ज्यों का त्यों तथा कभी मामूली परिवर्तनों के साथ ले लिया है । बहुत बार उन्होंने धर्मकीर्ति के ही वाक्यों को उन्हीं के खण्डन के लिए लिया है, परन्तु धर्मकीर्ति के नाम का उल्लेख
१. सिद्धिविनिश्चय ( प्र० भाग ) प्रस्तावना, पृ० ५७ ।
२. न्यायविनिश्चयविवरण (भाग - २), प्रस्तावना - - सातकौड़ी उपाध्याय ।
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