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प्रस्तावना
बौद्ध आचार्य धर्मकोति, प्रज्ञाकरगुप्त, धर्माकरदत्त ( अर्चट ), शान्तभद्र, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि तथा शान्तरक्षित के ग्रन्थों का उल्लेख या प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।' अकलक जैन न्याय के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। उनके पश्चात् जो जैन ग्रन्थकार हुए उन्होंने अपनी न्याय विषयक रचनाओं में अकलंकदेव का ही अनुसरण करते हुए जैन न्याय विषयक साहित्यश्री की श्रीवृद्धि की और जो बातें अकलंकदेव ने अपने प्रकरण में सूत्र रूप में कही थीं, उनका उपपादन तथा विश्लेषण करते हुए दर्शनान्तरों के विविध मन्तव्यों की समीक्षा में बृहत्काय ग्रन्थ रचे, जिससे जैन न्यायरूपी वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हुआ । अकलंकदेव की रचनायें निम्नलिखित हैं
तत्त्वार्थवानिक-यह गृद्ध पिच्छाचार्य उमास्वामि के तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ पर उद्योतकरके न्यायवार्तिक की शैली में लिखा गया प्रथम वार्तिक है । पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का बहुभाग इसमें मूलवार्तिक का रूप पा गया हैं । ___ अष्टशती-यह समन्तभद्रकृत देवागम स्तोत्र की संक्षिप्त वृत्ति है । गहनता, संक्षिप्तता तथा अर्थगाम्भीर्य में इसकी समानता करने योग्य कोई दूसरा ग्रन्थ दार्शनिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता। अष्टशती में उन सब विषयों पर तो प्रकाश डाला ही गया है, जो आप्तमीमांसा में उल्लिखित हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त इसमें नए विषयों का भी समावेश किया है। इसमें सर्वज्ञ को न मानने वाले मीमांसक और चार्वाक के साथ-साथ सर्वज्ञविशेष में विवाद करने वाले बौद्धों की भी आलोचना की गयी है। सर्वज्ञ साधक अनुमान का समर्थन करते हुए उन पक्षदोषों और हेतुदोषों का उद्भावन करके खण्डन किया गया है, जिन्हें दिङ्नाग आदि बौद्ध नैयायिकों ने माना है। इच्छा के बिना वचन की उत्पत्ति, बौद्धों के प्रति तर्क प्रमाण की सिद्धि, धर्मकीर्ति द्वारा अभिमत निग्रह स्थान की आलोचना, स्वलक्षण को अनिर्देश्य मानने की आलोचना, स्वलक्षण में अनभिलाप्यत्व की सिद्धि आदि नूतन विषयों पर अष्टशती में अच्छा प्रकाश डाला गया है। ___ लघीयस्त्रय सविवृत्ति-यह ग्रन्थ प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश इन छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है। लघीयस्त्रय सविवृत्ति की प्रतियों में इसके प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश को एक ग्रन्थ के रूप में माना है तथा प्रवचन१. सिद्धिविनिश्चय टीका, प्र० भाग (पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य लिखित
प्रस्तावना ), पृ० २१-३६ । २. जैन न्याय, पृ० ३५ ।। ३. प्रो० उदयचन्द्र जैन : आप्तमीमांसा तत्त्वदीपिका, पृ० ४५ (प्रस्तावना)।
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