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________________ प्रमेयरत्नमालायां समकालीन हैं। समकालीन होते हुए भी मल्लवादी वृद्ध हैं और दिङ्नाग युवा हैं।' मल्लवादी की सन्मतितर्क टीका महत्त्वपूर्ण है। यह टीका इस समय अनुपलब्ध है। उनका प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ ग्रन्थ नयचक्र है । आज तक के ग्रन्थों में यह एक अद्भुत ग्रन्थ है । तत्कालीन सभी वादों को सामने रखते हुए उन्होंने एक वाद चक्र बनाया। उस चक्र का उत्तर उत्तरवाद पूर्व पूर्ववाद का खण्डन करके अपने-अपने पक्ष को प्रबल प्रमाणित करता है । प्रत्येक पूर्ववाद अपने को सर्वश्रेष्ठ एवं निर्दोष समझता है । वह यह सोचता ही नहीं कि उत्तरवाद मेरा भी खण्डन कर सकता है। इतने में तुरन्त उत्तरवाद आता है और पूर्ववाद को पछाड़ देता है। अन्तिम वाद पुन: प्रथम वाद से पराजित होता है। अन्त में कोई भी वाद अपराजित नहीं रह जाता । अनेकान्त दृष्टि का आश्रय लेने से सभी वाद सुरक्षित रह सकते हैं । अनेकान्तवाद के अनुसार समन्वय में सभी वादों को उचित स्थान प्राप्त हो जाता है । कोई भी वाद बहिष्कृत घोषित नहीं किया जाता । भट्टाकलंक भट्ट अकलंक प्राचीन भारत के अद्भुत विद्वान् तथा लोकोत्तर विवेचक ग्रन्थकार एवं जैन वाङमय रूपी नक्षत्र लोक के सबसे अधिक प्रकाशमान तारे हैं । अकलंक ने न्याय प्रमाण शास्त्र का जैन परम्परा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषायें, जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदि का वर्गीकरण किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि परमत प्रसिद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में जो जैन प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में जैन परम्परा में नहीं, पर अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध तर्कशास्त्र के अनेक पदार्थों को जैन दृष्टि से जैन परम्परा में जो सात्मीभाव किया तथा आगमसिद्ध अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रन्थों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय प्रमाण स्थापना युग का द्योतक है।४ अकलंकदेव का समय ई० ७२०-७८० सिद्ध होता है। उनके ग्रन्थों में १. पं० दलसुख मालवणिया : आगम युग का जैनदर्शन, पृ० २९६-२९७ । २. डॉ० मोहनलाल मेहता : जैनदर्शन, पृ० १०२-१०३ । ३. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग २ ( सात कौड़ी मुखोपाध्याय लिखित प्राक्कथन) ४. पं० सुखलाल संघवी : दर्शन और चिन्तन, पृ० ३६५ । ५. सिद्धिविनिश्चय टीका, प्र० भाग (पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य लिखित प्रस्तावना ), पृ० १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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