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________________ प्रस्तावना अतएव वह वस्तु को नित्य कहे, यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है और बौद्ध पर्यायानुगामी या भेददृष्टि होने से वस्तु को क्षणिक या अनित्य कहे, यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है, किन्तु वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन न तो केवल द्रव्यदृष्टि में पर्यवसित है और न पर्यायदृष्टि में, अतएव सांख्य या बौद्ध को परस्पर मिथ्यावादी कहने का स्वातन्त्र्य नहीं।' पात्रकेसरी - स्वामी पात्रकेसरी के समय की सीमा विक्रम की नवम शताब्दी से पूर्व निश्चित रूप से सिद्ध होती है, क्योंकि महापुराण के प्रारम्भ में जिनसेनाचार्य ने उनका उल्लेख किया है । दिङ्नाग के रूप्य के हेतु लक्षण का खण्डन करने के लिए उन्होंने विलक्षण कदर्थन नामक ग्रन्थ लिखा, अतः पात्रकेसरी दिङ्नाग ( ईसा की पाँचवीं शताब्दी) के पश्चात् होने चाहिए। त्रिलक्षण कदर्थन विषयक उनका श्लोक निम्नलिखित है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' के अनुमान परीक्षा नामक प्रकरण में पात्रकेसरी के "त्रिलक्षणकदर्थन" नामक ग्रन्थ से कारिकायें उद्धृत करके उनकी आलोचना की है। अकलंकदेव भी शान्तरक्षित के पूर्व समकालीन थे, अतः उन्होंने भी उस ग्रन्थ को देखा होगा, अतः न्यायशास्त्र के मुख्य अंग हेतु आदि के लक्षण का उपपादन अवश्य ही पात्रकेसरी की देन है । मल्लवादी विजयसिंह सूरि प्रबन्ध में एक गाथा में लिखा है कि वीर सं० ८८४ में मल्लवादी ने बौद्धों को हराया। अर्थात् विक्रम सं० ४१४ में यह घटना घटी। इससे यह अनुमान होता है कि विक्रम सं० ४१४ में मल्लवादी विद्यमान थे। आचार्य सिंहगणि जो नयचक्र के टीकाकार हैं, अपोहवाद के समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए अद्यतन बौद्ध विशेषण का प्रयोग करते हैं। उससे सूचित होता है कि दिङ्नाग जैसे बौद्ध विद्वान् न केवल मल्लवादी के अपितु सिंहगणि के भी जं काविलं दरिसणं एवं दवट्टियस्य वत्तव्वं । सुद्धोअण तणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ।। दोहिं वि णयेहिं णीयं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छतं । जं सविसअप्पहा णत्तणेण अण्णोण्णणि रवेक्खा ॥-सन्मति तर्क ३/४७-४९ १. वही, १/१०-१२ । २. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन न्याय, पृ० २३-२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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