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________________ प्रमेयरत्नमालायां स्याद्वाद की परिभाषा स्थिर की । श्रुत प्रमाण को स्याद्वाद और विशकलित अंशों का नय बतलाया एवं सुनय तथा दुर्नय की व्यवस्था की । समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर अकलदेव ने अष्टशती तथा विद्यानन्द ने अष्टसहस्री की रचना की। वसुनन्दि प्रभृति टीकाकारों ने श्री समन्तभद्र के ग्रन्थों के हार्द को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। सिद्धसेन विद्वानों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन के समय निर्धारण का प्रयत्न किया है, तदनुसार उनका समय पूज्यपाद ( विक्रम की छठी शती ) और अकलंक ( वि. की ७वीं शती ) का मध्यकाल अर्थात् वि० सं० ६२५ के आस पास माना जाता है। सिद्धसेन नाम के एक से अधिक आचार्य हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रन्थों के रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदाय में हुए हैं । इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुए सिद्धसेन के साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिंशिकायें, न्यायावतार आदि रचनायें हैं। इनका समय सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन से भिन्न है। प्रो. सुखलाल संघवी ने दोनों को एक मानकर उनका काल विक्रम की पांचवीं शताब्दी माना है । जैन साहित्य के क्षेत्र में दिग्नाग जैसे प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् की आवश्यकता ने ही प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन को उत्पन्न किया है। आचार्य सिद्धसेन का समय विभिन्न दार्शनिकों के बाद विवाद का समय था। उनकी दृष्टि में अनेकान्तवाद की स्थापना का यह श्रेष्ठ अवसर था, अतः उन्होंने सन्मतितर्क की रचना की । उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नानावादों को सन्मतितर्क में विभिन्न नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया। अद्वैतवादों को उन्होंने द्रव्यार्थिकनय के संग्रहनय रूप प्रभेद में समाविष्ट किया। क्षणिकवादी बौद्धों की दृष्टि को सिद्धसेन ने पर्यायनयान्तर्गत ऋजुसूत्रनयानुसारी बताया। सांख्य दृष्टि का समावेश द्रव्याथिकनय में किया और काणाददर्शन को उभयनयाश्रित सिद्ध किया । उनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार में जितने वचन प्रकार हो सकते हैं, जितने दर्शन एवं नाना मतवाद हो सकते हैं, उतने ही नयवाद हैं, उन सबका समागम ही अनेकान्तवाद है । सांख्य की दृष्टि संग्रहावलम्बी है, अभेदगामी है। १. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन न्याय, पृ० ९-१० । २. पं० दलसुख मालवणिया : आगम युग का जैनदर्शन, पृ० २७३ । ३. जावइया णयवहा तावइया चेव होंति णयवाया। __ जावइया णयवाया तावइया चेव होंति परसमया ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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