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________________ प्रस्तावना तत्त्वार्थसूत्र में अपित ( मुख्य ) और अनर्पित विवक्षा से वस्तुतत्त्व की सिद्धि की गई है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में न्यायशास्त्र के बीज विद्यमान हैं। आचार्य समन्तभद्र आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने समन्तभद्र के साहित्य का गम्भीर आलोडन कर उनका समय विक्रम की द्वितीय शती माना है। इनके मत का समर्थन डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन ने अनेक युक्तियों से किया है। उन्होंने लिखा हैस्वामी समन्तभद्र का समय १२०-१८५ ई० निर्णीत होता है और यह सिद्ध होता है कि उनका जन्म पूर्वतटवर्ती नागराज्य संघ के अन्तर्गत उरगपुर ( वर्तमान त्रिचनापल्ली ) के नागवंशी चोलनरेश कीलिकवर्मन् के कनिष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी सर्ववर्मन ( शेषनाग ) के अनुज राजकुमार शान्तिवर्मन के रूप में सम्भवतया ई० सन् १२० के लगभग हुआ था । सन् १३८ ई० शक सं०६० में उन्होंने मुनिदीक्षा ली और १८५ ई० के लगभग स्वर्गस्थ हुए । समन्तभद्र द्वारा प्रणीत रचनायें निम्नलिखित मानी जाती हैं १. बृहत् स्वयम्भूस्तोत्र, २. स्तुति विद्या-जिनशतक, ३. देवागम स्तोत्रआप्तमीमांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. प्रमाण पदार्थ, ८. तत्त्वानुशासन, ९. प्राकृत व्याकरण १०. कर्म प्राभृत टीका, ११. गन्धहस्ति महाभाष्य । स्वामी समन्तभद्र स्तुतिकार थे। बाद के कुछ ग्रन्थकारों ने इसी विशेषण के साथ उनका उल्लेख किया है। अपने इष्टदेव की स्तुति के ब्याज से उन्होंने एक ओर हेतुवाद के आधार पर सर्वज्ञ की सिद्धि की, दूसरी ओर विविध एकान्तवादों की समीक्षा करके अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की। उन्होंने जैन परम्परा में सम्भवतया सर्वप्रथम न्यायशास्त्र शब्द का प्रयोग करके एक ओर न्याय को स्थान दिया तो दूसरी ओर न्यायशास्त्र में स्याद्वाद को गुंफित किया। उन्होंने अनेकान्त में अनेकान्त की योजना बतलाई। प्रमाण का दार्शनिक लक्षण और फल बताया, १. विशेष जानकारी हेतु डॉ० दरबारीलाल कोठिया का लेख 'तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्र के बीज' देखिए ( पण्डित बाबूलाल जैन जमादार अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १२० )। २. रत्नकरण्डश्रावकाचार (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला ) स्वामी समन्तभद्र शीर्षक प्रबन्ध तथा अनेकान्त वर्ष १४, किरण १, पृ० ३-८ । ३. अनेकान्त वर्ष १४, किरण ११-१२, पृ० ३२४ । तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० १८४ ( भाग-२)। ४. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन न्याय, पृ० ८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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