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प्रमेयरत्नमालायां
जानता है । इस प्रकार सर्वज्ञ निश्चयदृष्टि से आत्मज्ञ और व्यवहारदृष्टि से सर्वज्ञ है।' समयसार की जयसेनाचार्य कृत टीका में बौद्धों की ओर से कहा गया है कि बुद्ध भी व्यवहार से सर्वज्ञ हैं, उन्हें दूषण क्यों देते हो ? इसका परिहार करते हुए कहा गया है कि सौगत आदि के मत में जैसे निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार सत्य नहीं है, वैसे ही व्यवहार से भी व्यवहार इनके यहाँ मिथ्या ही है, किन्तु जैनमत में तो व्यवहारनय यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्या है, किन्तु व्यवहार रूप में तो सत्य ही है। यदि लोकव्यवहार रूप में भी सत्य न हो तो फिर सारा लोकव्यवहार मिथ्या हो जाय, ऐसा होने पर कोई व्यवस्था न बने । इसलिए उपयुक्त कथन ठीक ही है कि परद्रव्य को तो आत्मा व्यवहार से जानता, देखता है, किन्तु निश्चय से अपने आपको देखता जानता है । गद्धपिच्छ उमास्वामि
__ जैन परम्परा में संस्कृत में सर्वप्रथम सूत्र ग्रन्थ लिखने वालों में गृद्ध विच्छाचार्य उमास्वामि का नाम अग्रणी है। दस अध्यायों में लिखित इस ग्रन्थ में तत्त्वार्थ का विवेचन हुआ है। इसकी महत्ता इसी से स्पष्ट है कि परवर्ती आचार्यों ने इस पर बड़ी-बड़ी गम्भीर और विशद टाकायें लिखों और यह ग्रन्थ जैनधर्म के प्रारम्भिक जिज्ञासुओं से लेकर बड़े-बड़े आचार्यों तक को समानरूप से उपयोगी है । यह जैनों की उभय परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर में मान्य है। इसके कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य कहे जाते हैं। इसमें प्रमाण और नयों की चर्चा हुई है । यहाँ कहा गया है कि 'प्रमाणनयैरधिगमः' अर्थात प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है । प्रमाण के यहाँ मति आदि पाँच भेद तथा प्रमाणाभास के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि कहे गए हैं। यहाँ मति और श्रुत को परोक्ष तथा शेष तीन को प्रत्यक्ष कहा गया है। अनुमानप्रयोग के तीन अवयवों पक्ष, हेतु और उदाहरण का यहाँ प्रयोग किया गया है । जैसे
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ( पक्ष ) सदसतोर विशेषाद्यदृच्छोपलब्धेः । ( हेतु ) उन्मत्तवत् । ( उदाहरण ) तत्त्वार्थसूत्र १/३१, ३२ असंख्येयभागादिषु जीवानाम् (पक्ष ) प्रदेशमहारविमर्पाभ्यां
( हेतु ) प्रदीपवत् ( उदाहरण ) त. सू. ५/१५, १६
१. समयसार ३८५-३९४, जयसेन टीका, पृ० ३२१ । २. वही, पृ० ३२१ ।
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