SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ चतुर्थः समुद्देशः केवलं सामान्य विशेषसमवायानामेव स्वरूपसत्त्वेन तथाव्यपदेशोपपत्तेस्तत्त्रयव्यवस्थेव स्यात् । ननु जीवादिपदार्थानां सामान्यविशेषात्मकत्वं स्याद्वादिभिरभिधीयते, तयोश्च वस्तुनोर्भेदाभेदाविति तो च विरोधादिदोषोपनिपातान्नकत्र सम्भविनाविति । तथाहि-भेदाभेदयोविधिनिषेधयोरेकत्राभिन्ने वस्तुन्यसम्भवः शीतोष्णस्पर्शयोवेति १ । भेदस्यान्यदधिकरणमभेदस्य चान्यदिति वैयधिकरण्यम् २। यमात्मानं पुरोधाय भेदो यं च समाश्रित्याभेदः, तावात्मानौ भिन्नी चाभिन्नौ च । तत्रापि तथापरिकल्पनादनवस्था ३ । येन रूपेण भेदस्तेन भेदश्चाभेदश्चेति सङ्करः ४ । येन भेदस्तेनाभेदो येनाभेदस्तेन भेद इति व्यतिकरः ५ । भेदाभेदात्मकत्वे च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तः संशयः ६ । ततश्चाप्रतिपत्तिः ७ । ततोऽभावः । ८ । इत्यनेकान्तात्मकमपि न सोस्थ्यमाभजतीति केचित् । होता है । द्रव्य के समान गुणादिक में भी कथन करना चाहिए। केवल सामान्य, विशेष और समवाय इन तीन पदार्थों के स्वरूप सत्त्व से 'सत्' व्यवहार बन जाता है, अतः सामान्य, विशेष और समवाय इन तीन पदार्थों की ही व्यवस्था सिद्ध होती है। योग-स्याद्वादी लोग जीवादि पदार्थों को सामान्य-विशेषात्मक कहते हैं। उस सामान्य और विशेष का वस्तु से भेद भी कहते हैं और अभेद भी कहते हैं। वे दोनों विरोध आदि दोषों के आने से एक वस्तु में सम्भव नहीं हैं। भेद और अभेद ये दोनों विधि और निषेध स्वरूप हैं, इसलिए उनका एक अभिन्न वस्तु में रहना असम्भव है, जैसे कि शीत और उष्ण स्पर्श का एक साथ वस्तु में रहना असम्भव है। ( अतः भिन्न और अभिन्न के एक वस्तु में रहने में विरोध है ) ॥१॥ भेद का अधिकरण अन्य है और अभेद का अधिकरण अन्य है, अतः वयधिकरण्य दोष है ॥२।। जिस स्वरूप को मुख्य कर भेद है और जिसका आश्रय लेकर अभेद है, वे दोनों स्वरूप भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। उनमें भी भेद और अभेद की कल्पना करने से अनवस्था दोष है ॥३॥ जिस रूप से भेद है, उस रूप से भेद और अभेद दोनों होने से सङ्कर दोष है ।।४। जिस रूप से भेद है, उससे अभेद है और जिससे अभेद है, उससे भेद है, इस प्रकार व्यतिकर दोष आता है ॥५॥ वस्तु के भेदाभेदात्मक होने पर असाधारण आकार से निश्चय करना संभव न होने से संशय दोष है॥६॥ संशय होने के कारण वस्तु का ज्ञान नहीं होने से अप्रतिपत्ति दोष है ॥७॥ अप्रतिपत्ति न होने से अभाव नाम का दोष भी आता है ॥८॥ इस प्रकार वस्तु को अनेकान्तात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy