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प्रमेयरत्नमालायां
यच्चावयविनि वृत्तिविकल्पादि बाधकमुक्तम्; तत्रावयविनो वृत्तिरेव यदि नोपपद्यते तदा न वर्तत इत्यभिधातव्यम् । नैकदेशादिविकल्पस्तस्य विशेषानान्तरीयकत्वात् । तथाहि - 'नैकदेशेन वर्तते, नापि सर्वात्मना इत्युक्ते प्रकारान्तरेण वृत्तिरित्यभिहितं स्यात् । अन्यथा न वर्तत इत्येव वक्तव्यमिति विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानरूपत्वात् कथञ्चित्तादात्म्यरूपेण वृत्तिरित्यवसीयते; तत्र यथोक्तदोषाणमनवकाशात् । विरोधादिदोषश्चाग्रे प्रतिषेत्स्यत इति नेह
प्रतन्यते ।
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यच्चैकक्षणस्थायित्वे साधनम् —'यो यद्भावं प्रतीत्याद्युक्तम्', तदप्यसाधनम् असिद्धादिदोषदुष्टत्वात् । तत्रान्यानपेक्षत्वं तावदसिद्धम्, घटाद्य
"द्धिस्स णिद्वेण दुराधिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिएण । गिद्धस्स लक्खेण हवेइ बंधो जहण्णवज्जो विसमे समे वा || " स्निग्ध का दो अधिक शक्त्यंश वाले स्निग्ध के साथ बन्ध होता है | रूक्ष का दो अधिक शक्त्यंश वाले रूक्ष के साथ बन्ध होता है तथा स्निग्ध का रूक्ष के साथ सम या विषम गुणों के होने पर इसी नियम से बन्ध होता है, किन्तु जघन्य शक्त्यंश वाले का बन्ध सर्वथा वर्जनीय है ।
( सर्वार्थसिद्धि ५ / ३३ - ३६ की व्याख्या )
जो अवयवी में वृत्तिविकल्प आदि बाधक कहे हैं सो अवयवों में अवयवी की वृत्ति हो यदि नहीं बनती है तो अवयवी अवयवों में रहता हो नहीं है, ऐसा कहना चाहिये । एकदेश से रहता है या सर्वदेश से रहता है, इत्यादि विकल्प नहीं कहना चाहिये; क्योंकि एकदेशादि विकल्प के अन्य विकल्प विशेष के साथ अविनाभाव पाया जाता है। इसे हो स्पष्ट करते हैं
अवयवी अवयवों में न एकदेश से रहता है और न सर्वदेश से, ऐसा कहे जाने पर अन्य प्रकार से रहता है, ऐसा कहा गया समझना चाहिए । अन्यथा अवयवों में अवयवी सर्वथा रहता ही नहीं, ऐसा कहना चाहिए; क्योंकि विशेष का निषेध शेष के अङ्गीकार रूप होता है, अतः कथञ्चित् तादात्म्य रूप से अवयवी की अवयवों में वृत्ति है, ऐसा निश्चय होता है । अवयवी के अवयवों में तादात्म्य रूप से रहने पर जो आपने कहे हैं, उन दोषों का अवकाश ही नहीं रह जाता है । विरोध आदि दोषों का आगे निषेध किया जायगा, अतः यहाँ पर विस्तार नहीं करते हैं ।
और जो बौद्धों ने पदार्थों के एकक्षणस्थायी रहने में साधन कहा हैजो जिस भाव के प्रति अन्य की अपेक्षा रहित है, वह विनाशस्वभावी है,
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