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चतुर्थः समुद्देशः
१६७ यदपि 'परमाणूनामेकदेशेन सर्वात्मना वा सम्बन्धी नोपपद्यत इति' तत्रानभ्युपगम एव परिहारः; स्निग्धरूक्षाणां सजातीयानां विजातीयानां च द्वयधिकगुणानां कथञ्चित्स्कन्धाकारपरिणामात्मकस्य सम्बन्धस्याभ्युपगमात् ।
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स्थूल आकार के अनुपलम्भ के बल से अनुपलब्धि हो तो निरंश परमाणुओं की सिद्धि हो, अन्यथा न हो; क्योंकि प्रत्यक्ष से स्थूलादि आकार की प्रतीति होती है)।
जो आप बौद्धों ने कहा कि परमाणुओं का एकदेश अथवा सर्वदेश से सम्बन्ध नहीं बनता है, उस विषय में जैनों का वैसा नहीं मानना ही परिहार है । स्निग्ध और रूक्ष, सजातीय और विजातीय दो अधिक गुण वाले परमाणुओं का कथञ्चित् स्कन्ध के आकार से परिणत होने रूप सम्बन्ध को जैन मानते हैं।
विशेष-बाह्य और आभ्यन्तर कारण से जो स्नेह पर्याय उत्पन्न होती है, उससे पुद्गल स्निग्ध कहलाता है। रूखेपन के कारण पुद्गल रुक्ष कहा जाता है । स्निग्ध और रुक्ष गुण वाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेषलक्षण बन्ध होने पर द्वयणक नाम का स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार जल तथा बकरी, गाय, भैंस और ऊँट के दूध और घी में उत्तरोत्तर अधिक रूप से स्नेह गुण रहता है तथा पांशु, कणिका और शर्करा आदि में उत्तरोत्तर न्यून रूप से रूक्ष गुण रहता है, उसी प्रकार परमाणुओं में भी न्यूनाधिक रूप से स्निग्ध और रूक्ष गुण का अनुमान होता है । जिनका शक्त्यंश निकृष्ट होता है, वे जघन्य गुण वाले कहलाते हैं। उन जघन्य गुण वालों का बन्ध नहीं होता है। समान शक्त्यंश होने पर तुल्य जाति वालों का बन्ध नहीं होता है। दो अधिक आदि शक्त्यंश वालों का तो बन्ध होता है। समानजातीय या असमानजातीय दो अधिक आदि शक्त्यंश वालों का बन्ध होता है, दूसरों का नहीं। जैसे-दो स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणु का एक स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ, दो स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ और तीन स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता, चार स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणुओं के साथ अवश्य बन्ध होता है । तथा दो रूप शक्त्यंश वाले परमाणु का एक, दो और तीन रूक्ष शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता । चार रूक्ष शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ अवश्य बन्ध होता है। कहा भी है
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