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________________ प्रमेयरत्नमालायां एतेन तयोर्युगपद्वृत्तेर्लघुवृत्तेर्वा तदेकत्वाध्यवसाय इति निरस्तम्; तस्यापि कोशपानप्रत्येयत्वादिति । केन वा तयोरेकत्वाध्यवसायः ? न तावद्विकल्पेन, तस्याविकल्पवार्तानभिज्ञत्वात् । नाप्यनुभवेन तस्य विकल्पागोचरत्वात् । न च तदुभयाविषयं तदेकत्वाध्यवसाये समर्थमतिप्रसङ्गात् । ततो न प्रत्यक्षबुद्धौ तथा विधविशेषावभासः । नाप्यनुमानबुद्धों, तदविनाभूतस्त्रभावकार्यलिङ्गाभावात् । अनुपलम्भोsसिद्ध एव, अनुवृत्ताकारस्य स्थूलाकारस्य चोपलब्धेरुक्तत्वात् । १६६ और सविकल्प में भेद के न ग्रहण करने पर निर्विकल्प आकार की सविकल्प अनुरागता युक्त नहीं है ) । सविकल्प में निर्विकल्प के आकार के निराकरण द्वारा उन दोनों ( सविकल्प और निर्विकल्प ) में युगपत् वृत्ति से ( यदि दोनों में एकत्व का अध्यवसाय माना जाय तो लम्बी पूरी के भक्षण आदि में रूपादि पाँचों का ज्ञान एक साथ होने से उनमें भी अभेद का अध्यवसाय माना जाना चाहिए ) अथवा लघुवृत्ति से ( क्रमवृत्त्व होने पर भी ) उस निर्विकल्प और सविकल्प की एकता का निश्चय होता है, इस कथन का भी निराकरण हो गया । ( यदि लघुवृत्ति से अभेद का अध्यवसाय ( निश्चय ) माना जाय तो गधे के रॅकने इत्यादि में भी अभेद का अध्यवसाय हो ) उनका यह कथन सौगन्ध खाने के समान है । ( जिस प्रकार सौगन्ध खाकर बलात् विश्वास दिलाया जाता है, उसी प्रकार उनका कथन है | ) अथवा निर्विकल्प और सविकल्प के एकत्व का निश्चय किस ज्ञान से होगा ? विकल्प से तो हो नहीं सकता; क्योंकि विकल्प ज्ञान अविकल्प की वार्ता से अनभिज्ञ है । अनुभव रूप निर्विकल्प प्रत्यक्ष से भी नहीं हो सकता; क्योंकि विकल्प अनुभव के अगोचर है । और उन विषय न करने वाला निर्विकल्प और सविकल्प का निश्चय कराने में समर्थ नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा । अतः प्रत्यक्ष ज्ञान में परस्पर असम्बद्ध परमाणु विशेष प्रतिभासित नहीं होते हैं । और अनुमान ज्ञान में भी उनका प्रतिभास होता है; क्योंकि परस्पर असम्बद्ध परमाणुओं के अविनाभावी स्वभावलिङ्ग और कार्यलिङ्ग का अभाव है । अनुपलम्भ हेतु तो असिद्ध ही है (यदि कहा जाय कि स्थिर, स्थूल और साधारण आकार वाले पदार्थ के नहीं पाए जाने से ( परमाणुरूप ) विशेष ही तत्त्व है, सो यह कथन असिद्ध है; क्योंकि अनुवृत्त आकार की और स्थूल आकार की उपलब्धि के विषय में हम कह चुके हैं । ( यदि अनुवृत्त आकार और दोनों को ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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