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________________ चतुर्थः समुद्देशः सिद्ध एवेति सौगताः प्रतिपेदिरे । तेऽपि न युक्तवादिनः; सजातीयेतरव्यावृत्तात्मनां विशेषाणामनंशानां ग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात् । प्रत्यक्षस्य स्थिरस्थूलसाधारणाकारवस्तुग्राहकत्वेन निरंशवस्तुग्रहणायोगात् । न हि परमाणवः परस्परासम्बद्धाश्चक्षुरादिबुद्धौ प्रतिभान्ति, तथा सत्यविवादप्रसङ्गात् । अथानुभूयन्त एव प्रथमं तथाभूताः क्षणाः, पश्चात्तु विकल्पवासनाबलादान्तरादन्तरालानुपलम्भलक्षणाद् बाह्याच्चाविद्यमानोऽपि स्थूलाद्याकारो विकल्पबुद्धौ चकास्ति । स च तदाकारेणानुरज्यमानः स्वव्यापारं तिरस्कृत्य प्रत्यक्षव्यापारपुरःसरत्वेन प्रवृत्तत्वात् प्रत्यक्षायत इति । तदप्यतिबालविलसितम् निर्विकल्पक-बोधस्यानुपलक्षणात् । गृहीते हि निर्विकल्पकेतरयोर्भेदे अन्याकारानुरागस्यान्यत्र कल्पना युक्ता स्फटिकजपाकुसुमयोरिव, नान्यथेति । आता है। इस प्रकार नित्य पदार्थ के क्रम से और एक साथ कार्य का अभाव सिद्ध ही है, ऐसा बौद्ध लोग प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध भी युक्तिवादी नहीं हैं, क्योंकि सजातीयविजातीय भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले अंश रहित विशेषों के ग्राहक प्रमाण का अभाव है। प्रत्यक्ष प्रमाण तो स्थिर, स्थूल और साधारण आकार वाले पदार्थ का ग्राहक है, अतः वह निरंश वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता। परस्पर असम्बद्ध परमाणु चक्ष आदि इन्द्रियों की बुद्धि में प्रतिभासित नहीं होते हैं। यदि प्रतिभासित होते तो फिर विवाद का प्रसङ्ग ही नहीं आता। बौद्ध-इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होने के बाद सर्वप्रथम निरंश परमाणु ही प्रतिभासित होते हैं, पीछे विकल्प की वासना रूप अन्तरंग कारण से और बाहरी अन्तराल के नहीं पाये जाने रूप बहिरंग कारण से अविद्यमान भी स्थिर-स्थूल आदि आकार विकल्पबुद्धि में प्रतिभासित होते हैं और वह विकल्प उस निर्विकल्प प्रत्यक्ष के आकार से अनुरंजित होकर अपने विकल्प रूप अस्पष्ट व्यापार को तिरस्कृत कर स्पष्ट रूप प्रत्यक्ष व्यापार पूर्वक प्रवृत्त होने से प्रत्यक्ष के समान प्रतिभासित होता है। जैन-बौद्धों का कथन भी अति बाल-चेष्टा के समान है, क्योंकि किसी को भी निर्विकल्प ज्ञान का अनुभव नहीं होता है। निर्विकल्प और सविकल्प के भेद गृहीत होने पर ही अन्य निर्विकल्प के आकार की अन्यत्र कल्पना करना युक्त है। जैसे पूर्व में स्फटिक वस्तु के निश्चित होने पर स्फटिक में जपाकुसुम की कल्पना युक्त है, अन्यथा नहीं। (निर्विकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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