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________________ चतुर्थः समुदेशः १५७ ननु कार्याणामेकान्वयदर्शनादेककारणप्रभवत्त्वं भेदानां परिमाणदर्शनाच्चेति । तदप्यचारुचवितम्; सुखदुःखमोहरूपतया घटादेरन्वयाभावादन्तस्तत्त्वस्यैव तथोपलम्भात् । अथान्तस्तत्त्वस्य न सुखादिपरिणामः, किन्तु तथापरिणममानप्रधानसंसर्गादात्मनोऽपि तथा प्रतिभास इति । तदप्यनुपपन्नम्; अप्रतिभासमानस्यापि संसर्गकल्पनायां तत्त्वेयत्ताया निश्चतुमशक्तेः । तदुक्तम् संसर्गादविभागश्चेदयोगोलकवह्निवत् । भेदाभेदव्यवस्थैवमुच्छिन्ना सर्ववस्तुषु ॥ ३३ ॥ इति यदपि परिमाणाख्यं साधनम्, तदप्येकप्रकृतिकेषु घटघटीशरावोदञ्चनादिष्वनेकप्रकृतिकेषु पटकुटमकुटशकटादिषु चोपलम्भादनकान्तिकमिति न ततः प्रकृतिसिद्धिः । तदेवं प्रधानग्रहणोपायासम्भवात्सम्भवे वा ततः कार्योदयायोगाच्च । सांख्य-महदादि कार्यों के एक रूप अन्वय के देखे जाने से तथा महत् आदि भेदों का परिमाण पाया जाने से उनका एक कारण से उत्पन्न होना सिद्ध है । तात्पर्य यह है कि जैसे छोटे बड़े परिमाण वाले घट, घटी, सकोरा आदि का मिट्टी से अन्वय पाया जाता है, उसी प्रकार महत् अहंकार आदि के भी एक प्रकृति का अन्वय देखा जाता है तथा भेदों में परिमाण पाया जाने से प्रधान सिद्ध है। जैन-यह कथन भी असुन्दर है; क्योंकि सुख, दुःख और मोह रूपपने से घटादि के अन्वय का अभाव होने से अन्तस्तत्त्वरूप आत्मा या चेतन पुरुष के ही सुख दुःख की उपलब्धि होती है। सांख्य-अन्तस्तत्त्व रूप चेतन का सुखादि परिणाम नहीं है, किन्तु सुख दुःखादि रूप से परिणमन करने वाले प्रधान के संसर्ग से आत्मा के भी सुख दुःखादि रूप से प्रतिभास होता है। जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अप्रतिभासमान भी प्रधान की आत्मा के साथ संसर्ग की कल्पना करने पर तत्त्वों की संख्या का निश्चय करना अशक्य हो जायगा । जैसा कि कहा है श्लोकार्थ-यदि लोहे के गोले और अग्नि के समान संसर्ग से प्रधान और आत्मा में अभेद माना जाय तो सब वस्तुओं में भेद और अभेद की व्यवस्था ही नष्ट हो जायगी ॥३३॥ जो आपने परिमाण नामक हेतु दिया है, वह एक प्रकृतिक घट, घटी, शराव, उदञ्चन आदि में तथा अनेक प्रकृतिक पट, कुट, मुकुट आदि में पाए जाने से अनैकान्तिक है, अतः उससे प्रधान की सिद्धि नहीं होती है। इस प्रकार प्रधान के ग्रहण का उपाय असम्भव है अथवा सम्भव भी मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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