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-१५८
प्रमेयरत्नमालायां
यदुक्तं परेण --
प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥ ३४ ॥ इति सृष्टिक्रमः,
मूलप्रकृति र विकृतिर्महदाद्या प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। ३५ ।।
लिया जाय तो भी प्रकृति से (घटादि ) कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । जैसा कि सांख्य ने कहा है
श्लोकार्थ - प्रकृति से महत् या बुद्धितत्व, महत् से अहंकार और अहंकार से पंच तन्मात्रायें तथा ग्यारह इन्द्रियाँ इन सोलह तत्त्वों का समूह उत्पन्न होता है । इन सोलह के समूह में अन्तर्भूत पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत (आकाशादि) उत्पन्न होते हैं ||३४||
।
विशेष - प्रकृति अव्यक्त है । महत् का अर्थ बुद्धि है । अहंकार अभिमान को कहते हैं । चक्षु, श्रोत्र, घाण, रसन तथा त्वक् नामक पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ पाँच कर्मेन्द्रियाँ कही गई हैं। इनमें मन दोनों प्रकार की इन्द्रिय है । यह संकल्प करने वाला है । तन्मात्र अर्थात् सूक्ष्म शब्दादि तन्मात्र में आए हुए मात्र पद का अर्थ यह है कि इनमें अनुभव योग्य सुख, दुःख, मोह इत्यादि विशेषतायें नहीं होती हैं । शब्द तन्मात्र से शब्द गुण वाला आकाश, शब्द तन्मात्र से युक्त स्पर्श तन्मात्र से शब्द और स्पर्श गुणों वाला वायु, शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं से युक्त रूप तन्मात्र से शब्द, स्पर्श और रूप गुणों वाला तेजस्, शब्द स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से युक्त रस तन्मात्र से शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस गुणों वाला जल तथा शब्द, स्पर्श, रूप और रस : तन्मात्रों से युक्त से गन्ध तन्मात्र शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुणों वाली पृथिवी उत्पन्न होती है ।
यह सृष्टि का क्रम है |
श्लोकार्थ - मूल प्रकृति किसी का विकार अथवा कार्य नहीं है, महत् इत्यादि सात तत्त्व अहंकार का कारण और मूल प्रकृति का कार्य दोनों ही हैं । १६ तत्त्वों का समुदाय तो केवल कार्य ही है । पुरुष न कारण ही है और न कार्य ही ||३५||
विशेष - सांख्य शास्त्र के अन्तर्गत चार प्रकार के पदार्थ हैं । कोई
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