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________________ १५६ प्रमेयरत्नमालायां तत्र कारणम्; पुरुषार्थेन हेतुना प्रधान प्रवर्तते । पुरुषार्थश्च द्वेधा; शब्दाधुपलब्धिगुणपुरुषान्तरविवेकदर्शनं वा; इत्यभिधानादिति चेत्सत्यम् । तथा प्रवर्तमानमपि बहुधानकं पुरुषकृतं कश्चिदुपकारं समासादयत्प्रवर्तेत, अनासादयद्वा ? प्रथमपक्षे स उपकारस्तस्माद्भिन्नोऽभिन्नो वा? यदि भिन्नस्तदा तस्येति व्यपदेशाभावः सम्बन्धाभावात् तदभावश्च; समवायादेरतभ्युपगमात् । तादात्म्यं च भेदविरोधीति । अथाभिन्न उपकार इति पक्ष आश्रीयते तदा प्रधानमेव तेन कृतं स्यात् । अथोपकारनिरपेक्षमेव प्रधान प्रवर्तते, तहि मुक्तात्मानम्प्रत्यपि प्रवर्ततेताविशेषात् । एतेन 'निरपेक्षप्रवृत्तिपक्षोऽपि प्रत्युक्तस्तत एव । किञ्च सिद्धे प्रधाने सर्वमेतदुपपन्नं स्यात् । न च तत्सिद्धिः कुतश्चिन्निश्चीयत इति । सांख्य-पुरुषार्थ ही प्रवत्ति में कारण है । पुरुषार्थ हेतु से प्रधान प्रवृत्त होता है। पुरुषार्थ दो प्रकार का होता है-(१) शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श को ग्रहण करना और (२) गण और पुरुषान्तर के विवेक को देखना। जैन-आपका कहना सत्य है, किन्तु हमारा प्रश्न है कि इस प्रकार से प्रवृत्ति करता हुआ भी वह प्रधान पुरुषकृत किसी उपकार को लेकर प्रवृत्ति करता है या पुरुषकृत किसी उपकार को नहीं लेकर प्रवृत्ति करता है ? प्रथम पक्ष में वह उपकार प्रधान से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो यह उपकार प्रधान का है, ऐसा कथन नहीं हो सकेगा। सम्बन्ध का अभाव होने पर उपकार का भी अभाव है; क्योंकि आपने समवाय और संयोग आदि सम्बन्ध तो माने नहीं हैं। यदि तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं तो वह सम्बन्ध भेद का विरोधी है। यह उपकार है, यह प्रधान है, इस प्रकार का भेद नहीं होगा। यदि उपकार प्रधान से अभिन्न है, ऐसा पक्ष लेते हैं तो प्रधान ही उस उपकार के द्वारा किया हुआ मानना पड़ेगा ( ऐसी स्थिति में नित्यत्व की हानि होगी )। सांख्य-पुरुषकृत उपकार से निरपेक्ष ही प्रधान प्रवृत्त होता है । जैन-तब तो प्रधान को मुक्त आत्मा के प्रति भी प्रवृत्ति करना चाहिए; क्योंकि वहाँ भी उपकार निरपेक्षता समान ही है। इससे पुरुषकृत उपकार की अपेक्षा के बिना ही प्रधान प्रवृत्ति करता है, यह पक्ष भी खण्डित समझना चाहिए। दूसरी बात यह है कि प्रधान नामक तत्त्व सिद्ध होने पर यह सब कथन युक्ति-युक्त सिद्ध हो सके, किन्तु उसकी सिद्धि किसी भी प्रमाण से निश्चित नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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