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चतुर्थः समुद्देशः
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तच्च केवलं प्रधानं महदादिकार्यनिष्पादनाय प्रवर्तमानं किमप्यपेक्ष्य प्रवर्तते, निरपेक्ष्य वा । प्रथमपक्षे तन्निमित्तं वाच्यम्, यदपेक्ष्य प्रवर्तते । ननु पुरुषार्थ एव
प्रधान से तात्पर्य
विशेष - अविवेकी अर्थात् जैसे प्रधान अपने से अभिन्न या अपृथक् है, उसी प्रकार महद् इत्यादि व्यक्त भी अभिन्न होने के कारण उससे अपृथक् हैं । अथवा अविवेक का यहाँ पर कार्य 'मिलकर उत्पन्न करना' है। कोई भी तत्त्व अकेला अपना कार्य उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता, किन्तु दूसरे के साथ मिलकर ही समर्थ होता है । इसलिए किसी भी एक तत्त्व से किसी कार्य की किसी भी एक प्रकार से उत्पत्ति सम्भव नहीं ।
जिन विज्ञानवादी बौद्धों का यह कहना है कि विज्ञान ही सुख दुःखतथा मोह उत्पन्न करने वाले शब्द इत्यादि विषयों का आकार या रूप धारण कर लेता है, सुखादि स्वभाव वाले शब्द आदि इससे भिन्न या पृथक् कोई पदार्थ नहीं है, उनके उत्तर में कारिका में "विषयः " यह शब्द आया है । जिसका अर्थ है ग्राह्य अर्थात् विज्ञान से पृथक् स्वतन्त्र रूप से ग्रहण करने योग्य । इसलिए उन्हें 'सामान्य' अर्थात् साधारण कहा, 1 जिसका भाव यह हुआ कि वे अनेक पुरुषों से ग्रहण किए जाते हैं । प्रधान, बुद्धि इत्यादि सभी पदार्थ जड़ हैं । 'प्रसवर्धाम' अर्थात् जिसमें 'परिणाम' धर्म ( नित्य ) विद्यमान रहे । कारिकाकार का अभिप्रेत है कि व्यक्त तथा प्रधान सदृश एवं भिन्न परिणामों से कभी भी वियुक्त नहीं रहते । जैसे व्यक्त इन धर्मों से युक्त है, वैसे ही प्रधान भी । पुरुष इन दोनों से विपरीत ( अर्थात् निर्गुण, विवेकी या असंहत, अविषय, असाधारण अर्थात् प्रतिपिण्ड विभिन्न, चेतन तथा अपरिणामी ) है । परन्तु प्रधान को हा भाँति पुरुष में भी कारणहीनता और नित्यता इत्यादि और इसी प्रकार व्यक्त की हो भाँति अनेक इत्यादि विद्यमान हैं, तब पुरुष इन दोनों से विपरीत है, यह कैसे कहा गया ? इसीलिए 'पुरुष उनके सदृश भी है' - ऐसा कहा । तात्पर्य यह है कि यद्यपि इसमें कारणहीनता इत्यादि समान धर्म हैं तथापि निर्गुणत्व इत्यादि विरुद्ध धर्म भी हैं ।
जैन - वह अद्वितीय प्रधान महदादि कार्य के निष्पादन के लिए प्रवृत्त होता हुआ क्या कुछ अपेक्षा करके प्रवृत्त होता है या अपेक्षा किए बिना ही प्रवृत्त होता है । प्रथम पक्ष में जो कुछ भी अपेक्षा करके प्रवृत्त होता है, वह निमित्त प्रतिपादित करना चाहिए ।
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