SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः समुद्देशः अभावप्रमाणादिति चेन्न; तत्साधकस्यानुमानस्य प्राक् प्रतिपादित्वादभावप्रमाणोत्थानायोगात् प्रमाणपञ्चकाभावेऽभावप्रमाणप्रवृत्तः ।। प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥२८॥ इति परैरभिधानात् । ततो न वादिनः कर्तुरस्मरणमुपपन्नम् । नापि प्रतिवादिनोऽसिद्धेः । तत्र हि प्रतिवादी स्मरत्येव कर्तारमिति । नापि सर्वस्य, वादिनो वेदकतुरस्मरणेऽपि प्रतिवादिनः स्मरणात् । ननु प्रतिवादिना वेदेऽष्टकादयो बहवः कर्तारः स्मर्यन्ते, अतस्तत्स्मरणस्य विवादविषयस्याप्रामाण्याद्भवेदेव सर्वस्य कतुरस्मरणमिति चेन्न; कर्तृ विशेषविषय एवासी विवादो न कर्तृसामान्ये । अतः सर्वस्य कतु रस्मरणमप्यसिद्धम् । 'सर्वात्मज्ञानरहितो वा कथं सर्वस्य कतु रस्मरणमवैति ? तस्मादपौरुषेयत्वस्य वेदे व्यवस्था मीमांसक-अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होता है। जैन-यह बात ठीक नहीं है। सर्वज्ञ के साधक अनुमान का पूर्व में प्रतिपादन किया जा चुका है, अतः अभाव प्रमाण के उत्थान का योग नहीं है । पाँचों प्रमाणों के अभाव में अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। श्लोकार्थ-जिस वस्तु के स्वरूप में प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती है, वहाँ वस्तु की असत्ता जानने के लिये अभाव प्रमाण की प्रमाणता है ।। २८॥ ऐसा मीमांसकों ने कहा है। अतः वादी के कर्ता का अस्मरण तो बनता नहीं है। न ही प्रतिवादी के बनता है; क्योंकि असिद्ध हेतु है। प्रतिवादी तो वेद के कर्ता का स्मरण करते ही हैं। सभी के ( वादी और प्रतिवादी दोनों के ) ही कर्ता का स्मरण नहीं है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वादी के वेद के कर्ता का स्मरण न होने पर भी प्रतिवादी के तो वेद के कर्ता का स्मरण है ही। शङ्का-चूँकि प्रतिवादी के द्वारा वेद में अष्टक आदि बहुत से कत्ताओं का स्मरण किया जाता है, अतः विवाद के विषयभूत उनका स्मरण अप्रामाण्य होने से सभी के कर्ता का अस्मग्ण ही मानना चाहिये। समाधान-यह बात ठीक नहीं है। यह विवाद कर्ता-विशेष के विषय में ही है, न कि कर्ता सामान्य के विषय में । अतः सभी के कर्ता का अस्मरण भी असिद्ध है। समस्त आत्माओं के ज्ञान से रहित मीमांसक कैसे सभी के कर्ता का अस्मरण जानता है ? अतः वेद में अपौरुषेयता की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy