SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ प्रमेयरत्नमालायां तदस्तु । अभावादिति चेदस्मात्तदभावसिद्धावितरेतराश्रयत्वम्-सिद्धे हि तदभावे तन्निबन्धनं तदस्मरणमस्माच्च तदभाव इति । प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेस्तदभावान्तेतरेतराश्रयत्वमिति चेन्न; प्रामाण्येनाप्रामाण्यकारणस्यैव पुरुषविशेषस्य निराकरणात् पुरुषमात्रस्यानिराकृतेः । अत्रातीन्द्रियार्थदशिनोऽभावादन्यस्य च प्रामाण्यकारणत्वानुपपत्तेः सिद्ध एव सर्वथा पुरुषाभाव इति चेत्कुतः सर्वज्ञाभावो विभावित ? प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेरिति चेदितरेतराश्रयत्वम् । कतु रस्मरणादिति चेच्चक्रकप्रसङ्गः । अपौरुषेय नहीं माना जा सकता। कर्ता का अभाव होने से स्मरण नहीं है, यदि यह पक्ष लिया जाय तो कर्ता के अस्मरण से वेद के कर्ता का अभाव सिद्ध करने में इतरेतराश्रय दोष प्राप्त होता है । वेद के कर्ता का अभाव सिद्ध होने पर उसके निमित्त से वेद के कर्ता का अस्मरण सिद्ध हो और जब वेद का का अस्मरण सिद्ध हो, तब वेद के कर्ता का अभाव सिद्ध हो । यदि कहो कि प्रामाण्य की अन्यथानुपपत्ति से वेद के कर्ता का अभाव होने पर उस वेद के प्रमाणता नहीं बन सकती, अतएव इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है सो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि प्रामाण्य की अन्यथानुपपत्ति से तो अप्रमाणता के कारणभूत पुरुषविशेष का ही निराकरण किया गया है, उससे पुरुषमात्र का निराकरण नहीं होता। मीमांसक-अतीन्द्रिय पदार्थों को देखने वाले सर्वज्ञ का अभाव है और अन्य अल्पज्ञ पुरुष के प्रमाणता का कारणपना नहीं बनता है, अतः पुरुष का अभाव सर्वथा सिद्ध है। जैन-आपने सर्वज्ञ का अभाव कैसे जान लिया ? प्रामाण्यान्यथानुपपत्ति से कहें तो इतरेतराश्रय दोष आता है अर्थात् जब सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध हो जाय, तब वेद की प्रामाण्यान्यथानुपपत्ति सिद्ध हो और जब प्रामाण्यान्यथानुपपत्ति सिद्ध हो, तब सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध हो । यदि वेद के कर्ता का स्मरण न होने से सर्वज्ञ का अभाव कहें तो चक्रक नाम के दोष का प्रसंग आता है । ( बार-बार उन्हीं बातों के दुहराने को चक्रक दोष कहते हैं, ( जैसे चक्र घूमने पर उसके आरे बार-बार घूमकर सामने आते हैं। वेद के कर्ता का स्मरण न होने से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध हो, सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होने पर वेद के प्रामाण्य की अन्यथानुपपत्ति सिद्ध हो, वेद के प्रामाण्य को अन्यथानुपपत्ति सिद्ध होने पर कर्ता का अभाव सिद्ध हो, इस प्रकार पुनः पुनः प्रसंग आने से एक की भी सिद्धि न होने पर चक्रक नामक दोष होता है। तीन बार अथवा बार बार घूमना चक्रक दोष है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy