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तृतीयः समुदेशः यदप्यपरं-'वेदाध्ययनमित्यादि' तदपि विपक्षेऽपि समानम्
भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् ।
तदध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥२७।। इति यच्चान्यदुक्तम्-'अनवच्छिन्नसम्प्रदायत्वे सत्यस्मर्यमाणकतृकत्वादिति, तत्र जीर्णकूपारामादिभिर्व्यभिचारनिवृत्त्यर्थमनवच्छिन्नसम्प्रदायत्वविशेषणेऽपि विशेष्यस्यास्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य विचार्यमाणस्यायोगादसाधनत्वम् । कर्तुरस्मरणं हि वादिनः प्रतिवादिनः सर्वस्य वा? वादिनश्चदनुपलब्धरभावाद्वा ? आये पक्षे पिटकत्रयेऽपि स्यादनुपलब्धे रविशेषात् । तत्र परैः तत्कतु रङ्गीकारान्नो चेदत एवात्रापि न
है तो अतीत और अनागत काल में भी कर्ता का ग्रहण नहीं होना चाहिए। ( साध्य-साधन में व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि होने पर व्याप्य का स्वीकार व्यापक के स्वीकार के बिना नहीं बन सकता, इस प्रकार जहाँ कहा जाता है वह प्रसंग साधन है)।
वर्तमान काल के दृष्टान्त के बल से व्याप्य-व्यापकभाव बन जायगा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इस समय भी देशान्तर में सौगत आदि ने अष्टक आदि को वेद का कर्ता स्वीकार किया है।
और जो आपने "वेदाध्ययनमित्यादि" श्लोक कहा है, वह विपक्ष अर्थात् पौरुषेय पक्ष में भी समान है
श्लोकार्थ-महाभारत का सर्व अध्ययन गुरु के अध्ययन पूर्वक है। क्योंकि वह अध्ययन पद का वाच्य है; जैसे कि वर्तमान काल का अध्ययन ॥ २७ ॥
और जो कहा गया है कि वेदाध्ययन की अविच्छिन्न परम्परा होने पर उसके कर्ता का स्मरण नहीं है, इस हेतु में जीणं, शीर्ण, कप, उद्यान आदि से होने वाले व्यभिचार की निवृत्ति के लिए अनवछिन्न सम्प्रदायत्व विशेषण के लगाने पर भी विशेष पद जो अस्मर्यमाण कर्तृकत्व है, वह विचार किए जाने पर सिद्ध नहीं होता है। कर्ता का स्मरण वादी को नहीं या प्रतिवादी को नहीं या सभी को नहीं? यदि वादी को नहीं तो क्या उसकी उपलब्धि नहीं होने से वादी को कर्ता का अस्मरण है अथवा अभाव होने से वादो को कर्ता का स्मरण नहीं है ? आदि पक्ष में त्रिपिटक में भी अपौरुषेयता प्राप्त हो जायगी; क्योंकि वेद के समान उसके कर्ता की भी उपलब्धि नहीं है। यदि कोई कहे कि पिटकत्रय का तो बौद्धों ने कर्ता स्वीकार किया है, अतः उन्हें अपौरुषेय नहीं माना जा सकता तो हमारा कहना है कि वेद का किसी ने कर्ता स्वीकार किया अतः वेद भी
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