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प्रमेयरत्नमालायां पयितुमशक्यत्वान्न तल्लक्षणस्याव्यापकत्वमसम्भवितत्वं वा सम्भवति । पौरुषेयत्वे पुनः प्रमाणानि बहूनि सन्त्येव ।
सजन्ममरणर्षिगोत्रचरणादिनामश्रुतेरनेकपदसंहितप्रतिनियमसन्दर्शनात् । फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिनिवृत्तिहेत्वात्मनां,
श्रुतेश्च मनुसूत्रवत्पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः ।।२९।। इति वचनात् अपौरुषेयत्वेऽपि वा न प्रामाण्यं वेदस्योपपद्यते; तद्धेतूनां गुणानामभावात् ।
ननु न गुणकृतमेव प्रामाण्यम्; किन्तु दोषाभावप्रकारेणापि । स च दोषाश्रयपुरुषाभावेऽपि निश्चीयते, न गुणसद्भाव एवेति । तथा चोक्तम्
शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित्तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥३७॥
व्यवस्था करना अशक्य होने से पूर्वोक्त आगम लक्षण के अव्यापकता और असम्भवता रूप दोष सम्भव नहीं हैं। वेद की पौरुषेयता के विषय में बहुत से प्रमाण हैं ही। ___श्लोकार्थ-जन्म और मरण सहित ऋषियों के गोत्र, आचरण आदि के नाम वेद सूक्तों में सुने जाते हैं । अनेक पदों के समूह रूप पृथक्-पृथक् छन्द रचना आदि के प्रतिनियम भी वेद में देखे जाते हैं, फलार्थी पुरुषों के लिए स्वर्ग का इच्छुक अग्निष्टोम से यज्ञ करे, इत्यादि प्रवृत्ति रूप और प्याज न खावें, मदिरा न पिये, गौ का पैर से स्पर्श न करे इत्यादि निवृत्ति वाक्य भी वेद में सुने जाते हैं, अतः अनुस्मृति के समान श्रुति
और वेद वाक्य भी पुरुषकर्तृक ही हैं, ऐसा पात्रकेसरी स्वामी ने बृहत् पञ्च नमस्कार नामक स्तोत्र में कहा है ।। २९ ॥
वेद को अपौरुषेय मान भी लिया जाय तो भी वेद की प्रमाणता नहीं बनती है, क्योंकि प्रमाणता के कारणभूत गुणों का अभाव है।
शङ्का-प्रमाणता गुणकृत ही नहीं होती, किन्तु दोष के अभावरूप प्रकार से भी प्रमाणता होती है। वह दोष का अभाव दोष के आश्रय पुरुष के अभाव में भी निश्चय किया जाता है, न कि गुण के सद्भाव में ही। जैसा कि कहा है
श्लोकार्थ-शब्द में दोष का उत्पन्न होना तो वक्ता के अधीन है, यह बात सिद्ध है। दोष का अभाव कहीं पर गुणवान् वक्तापने के अधीन
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