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प्रमेयरत्नमालायां
परम्परा रूप प्रवाह से समागत होने पर भी वेद के अयथार्थता ही है, यह बात स्थित हुई।
विशेष-भावनावादी भाट्ट कहते हैं कि सर्वत्र भावना ही वेदवाक्य का अर्थ प्रतीति में आ रहा है। भावना के २ भेद हैं-शब्द भावना और अर्थ भावना । शब्द के व्यापार को शब्द भावना कहते हैं । 'अग्निष्टोमेन' इत्यादि के द्वारा पुरुष का व्यापार होता है । उस पुरुष के व्यापार से धातु का अर्थ सिद्ध होता है और उससे फल होता है अर्थात् पुरुष के व्यापार में शब्द का व्यापार है तथा धात्वर्थ में पुरुष का व्यापार है, वही भावना है, धातु का शुद्ध अर्थ भावना नहीं है, अन्यथा विधि ही अर्थ हो जावेगा। सकलव्यापिनी 'करोति' क्रिया लक्षण वाली क्रिया सभी धातुओं में संभव है, वही सर्वव्यापिनी क्रिया भावना है। 'पचति, पपाच, पक्ष्यति' इन क्रियाओं में भी पाकं करोति इत्यादि अर्थ ही व्याप्त है। अतः "करोति" क्रिया का अर्थ ही वेदवाक्य का अर्थ है। यह "करोति" क्रिया का अर्थ सामान्य रूप है और यज्यादि उसके विशेष रूप हैं। यह सामान्य क्रियाकर्ता के व्यापार रूप है, इसे ही अर्थभावना कहते हैं। शब्द का व्यापार भावना है, वह पुरुष के व्यापार को कराती है, अतः वह भावना ही वेदवाक्य का विषय है।
विधिवादियों का कहना है कि विधि ही सर्वत्र वेदवाक्य में प्रधान है। क्योंकि वही प्रवृत्ति का अङ्ग है, किन्तु प्रतिषेध प्रवृत्ति का अङ्ग नहीं है, अतः वह प्रधान भी नहीं है। कहीं जलादि में प्रवृत्ति करने की इच्छा करते हुए सभी पुरुष विधि-जलादि के अस्तित्व को ही खोजते हैं, वहाँ जलादि में पररूप के प्रतिषेध की अन्वेषणा के होने पर परिसमाप्ति नहीं होती है, क्योंकि पररूप तो अनन्त हैं, उनका कहीं जलादि में प्रतिषेध करना अशक्य ही है अर्थात् विवक्षित वस्तु में पररूप के अभाव का विचार करने पर कहीं भी परिसमाप्ति होना सम्भव नहीं है, क्योंकि पररूप तो अनन्त हैं, उनका किसी भी वस्तु में प्रतिषेध करना शक्य नहीं हो सकता है।
“अग्निष्टोमादि वाक्य से मैं नियुक्त हुआ हूँ", इस प्रकार से निरवशेष योग को नियोग कहते हैं। वहाँ भी किंचित् चिद् भावना रूप कार्य १. अष्टसहस्री टीका, प्र० भाग (आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित सारांश
पृ० १७०-१७१) २. अष्टसहस्री, प्र० भाग पृ० ८७ ।
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