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तृतीयः समुद्देशः
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यच्चोक्तम् 'अतीतानागतावित्यादि तदपि स्वमतनिर्मूलनहेतुत्वेन विपरीत - साघनात्तदाभासमेवेति । तथाहि
अतीतानागतौ कालौ वेदार्थज्ञविविजितौ ।
कालशब्दाभिधेयत्वादधुनातनकालवत् ||२६|| इति
सम्भव नहीं है, क्योंकि आपके यहाँ नियोग का अनेक वक्ताओं ने ग्यारह: प्रकार से किया है ।
१. कोई कहते हैं कि जो लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय का अर्थ है, शुद्ध है, अन्य निरपेक्ष है एवं कार्यरूप ( यज्ञरूप ) है, वही नियोग है । २. वाक्यान्तर्गत कर्मादि अवयवों से निरपेक्ष शुद्ध प्रेरणा ही नियोग है । ३. प्रेरणा सहित कार्य ही नियोग है ।
४. कार्य सहित प्रेरणा को नियोग कहते हैं; क्योंकि कार्य के बिना कोई पुरुष प्रेरित नहीं होता है ।
५. कार्य को ही उपचार से प्रवर्तक कहकर उसे नियोग कहते हैं ।
६. प्रेरणा और कार्य का सम्बन्ध ही नियोग है ।
७. प्रेरणा और कार्य का समुदाय हो नियोग है ।
८. इन दोनों से विनिर्मुक्त स्वभाव ही नियोग है ।
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९. यन्त्रारूढ़ — याग लक्षण कार्य में लगा हुआ जो पुरुष है, वही नियोग है ।
१०. भोग्य भविष्यत् रूप ही नियोग है । ११. पुरुष ही नियोग है ' ।
भावनावादी भाट्ट हैं, विधिवादी ब्रह्माद्वैतवादी हैं और नियोगवादी प्रभाकर हैं । क्या कारण है कि भाट्टों के मत में भावना ही वाक्यार्थ है, ब्रह्माद्वैतवादियों के मत में विधि ही वाक्यार्थ है और प्राभाकरों के मत में नियोग ही वाक्यार्थ है ? इन तीनों में मतवैभिन्न क्यों है ? अल्पज्ञ होने के कारण वेद के या वेद के अर्थ का ठीक परिज्ञान न होने से मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने अन्यथा प्रतिपादन किया है; क्योंकि उनमें मतभेद है ।
और जो अपने "अतीतानागतौ" इत्यादि श्लोक कहा है वह भी मीमांसक मत के निर्मूलन का कारण होने से विपरीत अर्थ का साधन करने से अनुमानाभास ही है । इसी बात को स्पष्ट करते हैं ।
श्लोकार्थ - अतीत और अनागत काल वेदार्थ के जानने वाले से १. अष्टसहस्त्री, प्र० भाग ( आर्यिका ज्ञानमती जी कृत टीका पृ० ४७ ( नियोग-वाद के खण्डन का सारांश )
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