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तृतीयः समुद्देशः
१३९. अथ तद्वयाख्यातणां किञ्चिज्जत्वेऽपि यथार्थव्याख्यानपरम्पराया अनवच्छिन्नसन्तानत्वेन सत्यार्थ एव वेदोऽवसीयत इति चेन्न; किञ्चिज्ज्ञानामतीन्द्रियार्थेषु निःसंशयव्याख्यानायोगादर्धेनाऽऽकृष्यमाणस्यान्धस्यानिष्टदेशपरिहारेणाभिमतपथप्रापणानुपपत्तेः ।
किञ्च-अनादिव्याख्यानपरम्पराऽऽगतत्वेऽपि वेदार्थस्य गृहीतविस्मृतसम्बन्धवचनाकौशलदुष्टाभिप्रायतया व्याख्यानस्यान्यथैव करणादविसंवादायोगादप्रामाण्यमेव स्यात् । दश्यन्ते ह्यधुनातना अपि ज्योतिःशास्त्रादिषु रहस्यं यथार्थमवयन्तोऽपि दुरभिसन्धेरन्यथा व्याचक्षाणाः । केचिज्जानन्तोऽपि वचनाकौशलादन्यथोपदिशन्तः । केचिद्विस्मृतसम्बन्धा अयाथातथ्यमभिदधाना इति । कथमन्यथा भावना-विधिनियोगवाक्यार्थविप्रतिपत्तिदे स्यान्मनु-याज्ञवल्क्यादीनां श्रुत्यर्थानुसारिस्मृतिनिरूपणायां वा । तस्मादनादिप्रवाहपतितत्वेऽपि वेदस्यायथार्थत्वमेव स्यादिति स्थितम् ।
वेद के व्याख्याता अल्पज्ञ हैं, यथार्थ व्याख्यान की परम्परा से जिसकी सन्तान अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है, ऐसा वेद सत्यार्थ रूप में ही जाना जा रहा है, यदि आपका कथन यह हो तो यह भी ठीक नहीं है। अल्पज्ञ पुरुष अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में निःसन्देह व्याख्यान नहीं कर सकते। जैसे कि अन्धे के द्वारा खींचा जाता हुआ अन्धा अनिष्ट देश को छोड़कर अभीष्ट देश को नहीं पहुंच सकता।
दूसरी बात यह है कि वेद का अर्थ अनादिकाल से चली आ रही व्याख्यान परम्परा द्वारा आया हुआ मान भी लें तो भी गुरु से गृहीत अर्थ का सम्बन्ध विस्मृत हो जाने से या वचन की अकुशलता से अथवा दुष्ट अभिप्राय से यदि अर्थ का व्याख्यान अन्यथा कर दिया जाय तो उसमें यथार्थ तत्त्व की प्रकाशता का अभाव होने से अविसंवादकता न रहने से वह व्याख्यात अर्थ अप्रमाण हो जायगा। ___एतत्काल सम्बन्धी भी व्याख्याता देखे जाते हैं जो ज्योतिषशास्त्रादि के यथार्थ रहस्य को जानते हुए भी दुष्ट अभिप्राय से अन्यथा व्याख्या करते हैं। कोई-कोई जानते हुए भो वचन कौशल न होने से अन्यथा उपदेश देते हैं। कोई-कोई वाक्यार्थ का सम्बन्ध भूल जाने के कारण तथ्य को अयथार्थ कहते हुए देखे जाते हैं। अन्यथा वेद में भावना, विधि और नियोग रूप वाक्यार्थ का विवाद कैसे हो सकता था अथवा मनु, याज्ञवल्क्य आदि की श्रुति के अर्थ का अनुसरण करने वाली स्मृति को निरूपणाओं में विभिन्नता कैसे होती? इसलिए अनादि कालीन आचार्य
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