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________________ १३८ प्रमेयरत्नमालायां मनवगतार्थानां वा अनादिता स्यात् ? यदि तावदुत्तरः पक्षस्तदाऽज्ञानलक्षणमप्रामाज्यमनुषज्यते । अथ आद्य पक्ष आश्रीयते, तद्व्याख्यातारः किञ्चिज्ञा भवेयुः सर्वज्ञा वा ? प्रथमपक्षे दुरधिगमसम्बन्धानामप्यन्यथाऽप्यर्थस्य कल्पयितुं शक्यत्वात् मिथ्यात्वलक्षणमप्रामाण्यं स्यात् । तदुक्तम् अयमों नायमर्थ इति शब्दा वदन्ति न । कल्प्योऽयमर्थः पुरुषैस्ते च रागादिविप्लुताः ॥ २५ ।। किञ्च-किञ्चिज्जव्याख्यातार्थाविशेषाद् ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यस्य 'खादेच्छ्वमांसम्' इत्यपि वाक्यार्थः किं न स्यात् , संशयलक्षणमप्रामाण्यं वा । __ अथ सर्वविद्विदितार्थ एव वेदोऽनादिपरम्पराऽऽयात इति चेत् 'हन्त धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' इति हतमेतत् अतीन्द्रियार्थप्रत्यक्षीकरणसमर्थस्य पुरुषस्य सद्भावे च तद्वचनस्यापि चोदनावत्तदवबोधकत्वेन प्रामाण्याद्वेदस्य पुरुषाभावसिद्धेस्तत्प्रतिबन्धकं स्यात् । के अनादिता है या अनवगत शब्दों के ? यदि उत्तरपक्ष स्वीकार करते हैं तो अज्ञान लक्षण प्रामाण्य का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। यदि पहले पक्ष का आश्रय लेते हैं तो उसके व्याख्याता या तो अल्पज्ञ होंगे या सर्वज्ञ ? प्रथम पक्ष में जिन वैदिक वाक्यों के अर्थ का सम्बन्ध कठिनाई से जाना जा सकता है, उनके अर्थ की अल्पज्ञ अन्यथा भी कल्पना कर सकते हैं, इससे मिथ्यात्वलक्षण अप्रामाण्य प्राप्त होता है । वही कहा गया है श्लोकार्थ-( मेरा ) यह अर्थ है और यह अर्थ नहीं है, यह शब्द नहीं कहते हैं । यह अर्थ पुरुषों के द्वारा कल्पित है और वे पुरुष राग, द्वेष और मोह से बाधित हैं ॥२५॥ दूसरी बात यह है अल्पज्ञ पुरुष के द्वारा व्याख्यान किए गए अर्थ विशेष से 'स्वर्ग की कामना वाला अग्नि होत्र का हवन करे', इस वाक्य का अर्थ 'कुत्ते का मांस खाए', यह क्यों न हो, इस प्रकार संशय लक्षण वाली प्रमाणता क्यों न हो? ___ यदि कहो कि सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञात ही वेद अनादि परम्परा से आया है तो खेद की बात है कि यज्ञादि धर्म में वेद वाक्य ही प्रमाण हैं, यह कथन नष्ट हो जाता है। क्योंकि धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रत्यक्ष करने में समर्थ पुरुष का सद्भाव होने पर अतीन्द्रिय पदार्थ को प्रत्यक्ष करने में समर्थ पुरुष के वचन भी वेद वाक्य के समान अतीन्द्रिय पदार्थ के धर्म के अवबोधक होने से प्रमाणता को प्राप्त होंगे। इस प्रकार यह वाक्य वेद की अपौरुषेयता का प्रतिबन्धक होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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