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तृतीयः समुद्देशः
कालयोरनुमानं तदभावसाधकमिति । तथा च
अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ । कालशब्दाभिधेयत्वादिदानीन्तन कालवत् ॥ २३ ॥ वेदस्याध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥ २४ ॥ इति
तथा अपौरुषेयो वेदः, अनवच्छिन्नसम्प्रदायत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादाकाशवत् । अर्थापत्तिरपि प्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्यानन्यथाभूतस्य दर्शनात्तदभावे निश्चीयते; धर्माद्यतीन्द्रियार्थविषयस्य वेदस्यावग्दर्शिभिः कतुमशक्यात् । अतीन्द्रियार्थदर्शिनरचाभावात्प्रामाण्यमपौरुषेयतामेव कल्पयतीति ।
अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तं वर्णानां व्यापित्वे नित्यत्वे च प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमिति, तदसत्; प्रत्यभिज्ञायास्तत्र प्रमाणत्वायोगात् । देशान्तरेऽपि तस्यैव वर्णस्य सत्त्वे खण्डशः प्रतिपत्तिः स्यात् । न हि सर्वत्र व्याप्त्या वर्तमानस्यैकस्मिन्
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अभाव प्रत्यक्ष ही है, अतीत और अनागतकाल अनुमान वेद के कर्त्ता के अभाव का साधक है । कहा भी है
श्लोकार्थ - अतीत और अनागतकाल वेद को बनाने वाले पुरुष से रहित हैं; क्योंकि वे 'काल' शब्द के वाच्य हैं, जैसे कि इस समय का वर्तमानकाल ॥ २३ ॥
शङ्का - फिर वेद का अध्ययन कैसे सम्भव है ? इसके उत्तर में कहते हैं
वेद का अध्ययन तदध्ययनपूर्वक है; क्योंकि वह वेदाध्ययन का वाच्य है । जैसे कि वर्तमानकाल का अध्ययन ॥ २४ ॥
तथा वेद अपौरुषेय है; क्योंकि विच्छेदरहित सम्प्रदाय के होने पर भी उसके कर्त्ता का स्मरण नहीं है, जैसे आकाश के कर्त्ता का स्मरण नहीं है । अर्थापत्ति भी प्रामाण्यलक्षण अनन्यथाभूत अर्थ के दर्शन से वेद के कर्त्ता के अभाव का निश्चय कराती है; क्योंकि धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाले वेद का अल्पज्ञ पुरुषों के द्वारा प्रणयन करना अशक्य है । अतीन्द्रिय पदार्थों के दर्शी ( सर्वज्ञ ) का अभाव होने से वेद की प्रमाणता उसकी अपौरुषेयता को ही सिद्ध करती है ।
उक्त कथन का उत्तर देते हैं- जो आपने कहा कि वर्णों के व्यापक और नित्य होने में प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है, यह ठीक नहीं है; क्योंकि वर्णों के व्यापकत्व और नित्य होने में प्रत्यभिज्ञान के प्रमाणता नहीं है । यदि प्रमाणता हो तो दूसरे स्थान पर भी उसी एक वर्ण का सत्त्व मानने पर
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