SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयरत्नमालायां माभूद्वर्णानां तदात्मकस्य वा शब्दस्य कौटस्थ्यनित्यत्वम् । तथाप्यनादिपरपराऽऽयातत्वेन वेदस्य नित्यत्वात् प्रागुक्तलक्षणस्याव्यापकत्वम् । न च प्रवाहनित्यत्वमप्रमाणकमेवास्येति युक्तं वक्तुम् । अधुना तत्कर्तुरनुपलम्भादतीतानागतयोरपि कालयोस्तदनुमापकस्य लिङ्गस्याभावात् । तदभावोऽपि सर्वदाप्यतीन्द्रियसाध्यसाधनसम्बन्धस्येन्द्रियग्राह्यत्वायोगात् । प्रत्यक्ष प्रतिपन्नमेव हि लिङ्गम् । 'अनुमानं हि गृहीतसम्बन्धस्यैकदेशसन्दर्शनात्, असन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः इत्यभिधानात् । नाप्यर्थापत्तेस्तत्सिद्धिः, अनन्यथाभूतस्यार्थस्याभावात् । उपमानोपमेययोरप्रत्यक्षत्वाच्च नाप्युपमानं साधकम् । केवलमभाव 'प्रमाणमेवावशिष्यते; तच्च तदभावसाधकमिति । न च पुरुषसद्भाववदस्यापि दुःसाध्यत्वात्संशयापत्तिः तदभावसाधकप्रमाणानां सुलभत्वात् । अधुना हि तदभावः प्रत्यक्षमैव । अतीतानागतयोः १३२ वर्णों की अथवा तदात्मक शब्द की कूटस्थनित्यता न हो, फिर भी अनादि परम्परा से आये हुए वेद की नित्यता के कारण आपका पूर्वोक्त आगम का लक्षण अव्यापक है । वेद की प्रवाहनित्यता अप्रामाणिक है, ऐसा कहना ठीक नहीं है । वर्तमानकाल में उसका कर्त्ता कोई प्राप्त नहीं होता, अतः अतीत और अनागतकाल में वेद के कर्त्ता के अनुमापक लिङ्ग का अभाव है । उसका अभाव भी इसलिये है कि अतीन्द्रिय साध्य और साधन का सम्बन्ध कभी भी इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है । लिङ्ग तो प्रत्यक्ष के द्वारा परिज्ञात ही होता है । जिसने ( साध्य और साधन के अविनाभावरूप ) सम्बन्ध को ग्रहण किया है ऐसे पुरुष के ही ( साधन रूप ) एकदेश के देखने से परोक्ष पदार्थ में जो बुद्धि होती हैं, वह अनुमान है, ऐसा कहा गया है । अर्थापत्ति प्रमाण से भी वेद के कर्त्ता की सिद्धि नहीं होती; क्योंकि अनन्यथाभूत पदार्थ का अभाव है । उपमान और उपमेय के अप्रत्यक्ष होने से उपमान भी साधक नहीं है । केवल एक अभाव प्रमाण ही अवशिष्ट रहता है । वह अभाव प्रमाण वेद के कर्त्ता के अभाव का साधक है । जिस प्रकार वेद के कर्त्तारूप पुरुष का सद्भाव सिद्ध करना दुःसाध्य है, उसी प्रकार वेद के कर्ता का अभाव सिद्ध करना दुःसाध्य है, अतः संशय की आपत्ति आती है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वेद के कर्त्ता के अभाव के साधक प्रमाण सुलभ हैं । वर्तमानकाल में वेद के कर्त्ता का १. प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थं Jain Education International तत्राभावप्रमाणता ॥ १ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy