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तृतीयः समुदेशः
१३१ किञ्च-उत्पत्तिपक्षेऽपि समानोऽयं दोषः । तथाहि-वाय्वाकाशसंयोगा दसमवायिकारणादाकाशाच्च समवायिकारणादिग्देशाद्यविभागेनोत्पद्यमानोऽयं शब्दो न सर्वैरन भूयते, अपि तु नियत-दिग्देशस्थैरेव । तथाऽभिव्यज्यमानोऽपि नाप्यभिव्यक्तिसाङ्कर्यम्; उभयत्रापि समानत्वादेव । तथाहि-अन्यस्ताल्वादिसंयोगैयथाऽन्यो वर्णो न क्रियते, तथा ध्वन्यन्तरसारिभिस्ताल्वादिभिरन्यो ध्वनिरिम्मते। इत्युत्पत्त्यभिव्यक्तयोः समानत्वे नैकत्रैव पर्यनुयोगावसर' इति सर्व सुस्थम् ।
हे नैयायिक ? तुमने अभिव्यक्ति पक्ष में वर्ण और शब्द की नित्यता मानने पर सदैव सबके श्रवण हो, इस प्रकार दूषण दिया है तो उत्पत्तिपक्ष में भी मेरे द्वारा उसी प्रकार का दोष दिया जाता है, इस प्रकार दोनों जगह समान दोष है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं-वायु और आकाश के संयोग रूप असमवायि कारण से तथा आकाश रूप समवायिकारण से दिशा-देश आदि के अविभाग से उत्पन्न होने वाला यह शब्द सभी जनों के सुनने में नहीं आता है, अपितु नियत दिशा और देश में स्थित पुरुषों के द्वारा ही वह सुना जाता है। उसी प्रकार अभिव्यञ्जक वायु के द्वारा अभिव्यक्त होने वाला भी शब्द सभी के सुनने में नहीं आता, अपितु नियत दिशा और देश में स्थित पुरुषों को वह सुनने में आता है। जैसे दीपक अन्धकार के प्रदेश में विद्यमान घट पटादि का प्रकाशक होता है, उसी प्रकार अभिव्यञ्जक कारणों के मिलने पर वर्ण और शब्दों की अभिव्यक्ति एक साथ हो जाना चाहिये, इस प्रकार अभिव्यक्ति का सार्य हो जायेगा, यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि इस प्रकार का अभिव्यक्ति सार्य तो नित्य और अनित्य दोनों पक्षों में समान है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अन्य तालु आदि के संयोग से अन्य वर्ण उत्पन्न नहीं किया जा सकता, किन्तु ताल्वादि जिस शब्द का अनुसरण करते हैं, उसे अभिव्यक्त करते हैं, उसी प्रकार अन्य ध्वनि का अनुसरण करने वाले तालु आदि से अन्य ध्वनि की अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। इस प्रकार उत्पत्ति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष की समानता होने पर किसी एक-एक पक्ष में आक्षेप नहीं किया जा सकता ( कहा भी है-जहाँ पर दोनों को समान दोष हो और उसका परिहार भी एक जैसा हो, उस अर्थ के निरूपण में किसी एक पर प्रश्न नहीं किया जा सकता है)। इस प्रकार हमारा ( मीमांसकों का) सब कथन ठीक है।
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