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________________ १३० प्रमेयरत्नमालायां गकार इति नित्यत्वमपि तयैवावसीयते, कालान्तरेऽपि तस्यैव गकारादेनिश्चयात् । इतो वा नित्यत्वं शब्दस्य सङ्केतान्यथानुपपत्तरिति । तथाहि-गृहीतसङ्केतस्य शब्दस्य प्रध्वंसे सत्यगृहीतसङ्केतः शब्द इदानीमन्य एवोपलभ्यत इति तत्कथमर्थप्रत्ययः स्यात् ? न चासो न भवतीति स एवायं शब्द इति प्रत्यभिज्ञानस्यान्यत्रापि सुलभत्वाच्च । न च वर्णानां शब्दस्य वा नित्यत्वे सर्वैः सर्वदा श्रवणप्रसङ्गः; सर्वदा तदभिव्यक्तेरसम्भवात् । तदसम्भवश्चाभिव्यञ्जकवायूनां प्रतिनियतत्वात् । न च तेषामनुपपन्नत्वम्; प्रमाणप्रतिपन्नत्त्वात् । तथाहिवक्तमुखनिकटदेशवत्तिभिः स्पार्शनेनाध्यक्षेण व्यञ्जका वायवो गृह्यन्ते । दूरदेशस्थितेन मुखसमीपस्थिततूलचलनादनुमीयन्ते । श्रोतृश्रोत्रदेशे शब्दश्रवणान्यथानुपपत्तेरापत्त्यापि निश्चीयन्ते । वर्ण का प्रत्यभिज्ञान से अन्य देश में भी ग्रहण किया जाता है कि यह वही गकार है। इसी प्रकार वर्णों की नित्यता भी मानी जाती है, कालान्तर में भी उसी गकारादि वर्ण का निश्चय किया जाता है। इस शब्द से यह पदार्थ ग्रहण करना चाहिये, इस प्रकार का सङ्केत अन्यथा नहीं हो सकता, इस अन्यथानुपपत्ति से शब्द नित्य सिद्ध होता है । इसी बात को स्पष्ट करते हैं जिसका सङ्केत ग्रहण किया गया है, ऐसे शब्द के ध्वंस होने पर जिसका सङ्कत ग्रहण नहीं किया गया है, ऐसा शब्द इस समय अन्य ही प्राप्त होता है, तो अर्थ का निश्चय कैसे हो? अर्थ का निश्चय न होता हो, ऐसा भी नहीं है। यह शब्द वही है, इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान अन्यत्र भी सुलभ है। ऐसा भी नहीं है कि वर्ण अथवा शब्द के नित्य मानने पर सभी लोगों के द्वारा सुनने का प्रसङ्ग आयेगा; क्योंकि वर्गों अथवा शब्दों की सदैव अभिव्यक्ति असम्भव है । उस असम्भवा का कारण यह है कि वर्णों और शब्दों की अभिव्यञ्जक वायु प्रतिनियत हैं। वर्णों या शब्दों की अभिव्यञ्जक वायु का न पाया जाना भी नहीं कह सकते; क्योंकि वायु का सद्भाव प्रमाणों से स्वीकृत है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं वक्ता के मुख के निकट स्थित पुरुष स्पर्शन प्रत्यक्ष से व्यञ्जक वायु का ग्रहण करते हैं। दूर बैठे हए पुरुष द्वारा ( वक्ता के ) मुख के समीप में स्थित वस्त्रादि के हिलने से उनका अनुमान किया जाता है तथा श्रोता के कर्णप्रदेश में शब्द के श्रवण की अन्यथानुपपत्ति रूप अर्थापत्ति के द्वारा भी उन वर्णों का निश्चय किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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