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प्रमेयरत्नमालायां
प्रदेशे सामस्त्येन ग्रहणमुपपत्तियुक्तम्; अव्यापकत्वप्रसङ्गात् । घटादेरपि व्यापकत्वप्रसङ्गश्च । शक्यं हि वक्तुमेवम् - घटः सर्वगतश्चक्षुरादिसन्निधानादनेकत्र देशे प्रतीयत इति ।
ननु घटोत्पादकस्य मृत्पिण्डादेरनेकस्योपलम्भादनेकत्वमेव । तथा महदणुपरिमाणसम्भवाच्चेति । तच्च वर्णेष्वपि समानम्; तत्रापि प्रतिनियतताल्वादिकारणकलापस्य तीव्रादिधर्मभेदस्य च सम्भवाविरोधात् । तात्वादीनां व्यञ्जकत्वमत्रैव निषेत्स्यत इत्यास्तां तावदेतत् ।
अथ व्यापित्वsपि सर्वत्र सर्वात्मना वृत्तिमत्वान्न दोषोऽयमिति चेन्न; तथा सति सर्वथैकत्वविरोधात् । न हि देशभेदेन युगपत्सर्वात्मना प्रतीयमानस्यैकत्वमुपपन्नम् ; प्रमाणविरोधात् । तथा च प्रयोगः - प्रत्येकं गकारादिवर्णोऽनेक एव; युगखण्ड-खण्ड प्राप्ति होगी । ( किन्तु खण्डशः प्राप्ति नहीं होती है ) । जो व्याप्ति से सब जगह वर्तमान हो, उसका एक प्रदेश में समस्त रूप से ग्रहण युक्तियुक्त नहीं है । एक प्रदेश में समस्त रूप से ग्रहण मानने पर अव्यापकपने का प्रसंग आता है । ( वर्ण व्यापक भी हो और एक प्रदेश में सर्वात्मना विद्यमान भी हो तो ) घटादि के भी व्यापकपने का प्रसंग आता है । फिर तो यह कहा जा सकता है -घट सर्वगत है; क्योंकि चक्षु आदि के सन्निधान से एक होते हुए भी अनेक स्थानों पर प्रतीति में
आता है ।
मीमांसक - घट के उत्पादक मिट्टी का पिण्ड, चक्र आदि अनेक कारणों की प्राप्ति होती है तथा महत् और अणु परिमाण भी पाया जाता है ( अतः घट के अनेकता है ) ।
जैन - कारण का भेदपना तो वर्णों में भी समान है । उनमें भी प्रतिनियत तालु, कण्ठ आदि कारण समूह और तीव्र मन्द आदि धर्म भेद के सम्भव होने में कोई विरोध नहीं है ।
तालु आदि के व्यञ्जकपने का यहीं निषेध किया जायेगा, अतः यह कथन यहीं रहने दीजिए ।
मीमांसक-वर्णों की व्यापकता मानने पर भी सर्वत्र सर्वात्म रूप से उनके पाए जाने पर यह दोष नहीं आता है ।
जैन - यह बात ठीक नहीं है । ऐसा होने पर वर्ण को एकता का विरोध आता है । तात्पर्य यह कि यदि व्यापक एक प्रदेश में सम्पूर्ण रूप से है, पुनः अन्यत्र प्रदेश में सम्पूर्ण रूप से है तो अनेकत्वपना प्राप्त हो गया । देशभेद से युगपत् सर्वात्म रूप से प्रतीत होने वाले वर्ण की एकता नहीं बन सकती; क्योंकि प्रमाण से विरोध आता है । तात्पर्य यह
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