SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ प्रमेयरत्नमालायां स्वभावादिपदानां द्वन्द्वः, तेषामनुपलम्भ इति पश्चाच्छष्ठीतत्पुरुषसमासः। स्वभावानुपलम्भोदाहरणमाह नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धः ॥ ७५ ॥ अत्र पिशाच-परमाण्वादिभिर्व्यभिचारपरिहारार्थमुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे सतीति विशेषणमुन्नेयम् । व्यापकानुपलब्धिमाह नास्त्यत्र शिशपा वृक्षानुपलब्धे ॥ ७६ ॥ शिंशपात्वं हि वृक्षत्वेन व्याप्तम्; तद्भावे तवयाप्यशिशपाया अप्यभावः । कार्यानुपलब्धिमाह नास्त्यत्राप्रतिबद्ध सामोऽग्नि—मानुपलब्धः ॥ ७७ ॥ अप्रतिबद्धसामध्यं हि कार्यम्प्रत्यनुपहतशक्तिकत्वमुच्यते । तदभावश्च कार्यानुपलम्भादिति । ३. अविरुद्ध कार्यानुपलब्धि ४. अविरुद्ध कारणानुपलब्धि ५. अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि ६. अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि और ७. अविरुद्ध सहचरानुपलब्धि। स्वभाव, व्यापक आदि पदों का द्वन्द्व समास करना, पीछे उनका अनुपलम्भ पद के साथ षष्ठी तत्पुरुष समास करना चाहिये । ... स्वभावानुपलम्भ का उदाहरण कहते हैं सूत्रार्थ-इस भूतल पर घट नहीं है, क्योंकि उपलब्धि योग्य स्वभाव के होने पर भी वह नहीं पाया जा रहा है ।। ७५ ॥ ___यहाँ पर पिशाच और परमाणु आदिक से व्यभिचार के परिहारार्थ 'उपलब्धिलक्षण प्राप्ति के योग्य होने पर भी', यह विशेषण ऊपर से. लगाना चाहिए। व्यापकानुपलब्धि हेतु के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ-यहाँ पर शीशम नहीं है, क्योंकि वृक्ष नहीं पाया जा रहा है॥ ७६ ॥ शिंशपात्व वृक्षत्व के साथ व्याप्त है; वृक्षत्व का अभाव होने पर उसके व्याप्य शिशपात्व का भी अभाव है। कार्यानुपलब्धि के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ-यहाँ पर अप्रतिबद्ध सामर्थ्य वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम नहीं पाया जाता ॥ ७७॥ . जिसकी सामर्थ्य अप्रतिबद्ध है, ऐसा कारण अपने कार्य के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy