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तृतीयः समुद्देशः
१२१ विरुद्धपूर्वचरमाह
नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥ ७१॥ शकटोदयविरुद्धो हश्विन्युदयः, तत्पूर्वचरो रेवत्युदय इति । विरुद्धोत्तरचर लिङ्गमाह - ___नोदगाद्धरणिमुहूर्तात्पूर्व पुष्योदयात् ॥ ७२ ॥ भरण्युदयविरुद्धो हि पुनर्वसूदयः, तदुत्तरचरः पुष्योदय इति । विरुद्धसहचरमाहनास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥ ७३ ॥ परभागाभावस्य विरुद्धस्तद्भावः, तत्सहचरोऽर्वाग्भाग इति । अविरुद्धानुपलब्धिभेदमाहअविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा--स्वभावव्यापक
कार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भभेदात् ॥ ७४॥ । विरुद्ध पूर्वचर के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-एक मुहूर्त के पश्चात् रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि अभी रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा है ॥ ७१ ॥
यहाँ पर शकट के उदय का विरोधी अश्विनी का उदय है, उसका पूर्वचर रेवती नक्षत्र है, उसका उदय पाया जाने से यह विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि का उदाहरण है।
विरुद्धोत्तरचर हेतु को कहते हैं
सूत्रार्थ-एक मुहूर्त पहले भरणी नक्षत्र का उदय नहीं हुआ है। क्योंकि अभी पुष्य नक्षत्र का उदय पाया जा रहा है ॥७२॥
भरणी के उदय का विरोधी पुनर्वसु नक्षत्र का उदय है । उसका उत्तरचर पुष्य नक्षत्र का उदय है।
विरुद्ध सहचरोपलब्धि हेतु के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-इस भित्ति में दूसरे भाग का अभाव नहीं है, क्योंकि प्रथम भाग दिखाई दे रहा है ।। ७३ ॥
परभाग के अभाव का विरोधी उसका सद्भाव है, उसका सहचारी इस ओर का भाग पाया जाता है।
अविरुद्धानुपलब्धि के भेद को कहते हैं
सूत्रार्थ-अभाव साध्य होने पर अविरुद्धानुपलब्धि सात प्रकार को होती है-१. अविरुद्ध स्वभावानुपलब्धि २. अविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि
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